बिस्मिल्ला खाँ साहब की मज़ार पर एक अर्ज़ी

'ब' से बिस्मिल्लाह और 'ब' से बनारस। बनारस, बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई- ये एक-दूसरे के पर्याय ही हो गए हैं। बनारस के साथ काशी विश्वनाथ और गंगा मैया का भी गहरा और पर्यायी रिश्ता ही है... पर वही रिश्ता तो ख़ाँ साहब का भी बाबा विश्वनाथ और गंगा से है।
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रियाज़ उनकी गंगा किनारे ही होती और बाबा विश्वनाथ के दरबार में तो बचपन से ही शहनाई बजाते आ रहे थे। अपने चाचा अली बख़्श 'विलायती' से उन्होंने शहनाई सीखी ही बाबा भोले के दरबार में।

बिहार के डुमराव में जन्मे कमरुद्दीन के जन्म पर उनके दादा रसूल बख़्श के मुँह से शायद 'बिस्मिल्लाह' निकला ही इसलिए था, क्योंकि ये बनारस की एक नई पहचान की सुरीली शुरुआत थी। छह साल की उम्र में जो खाँ साहब बनारस आए तो बस यहीं के हो गए।

सुबह-ए-बनारस की सुरीली घंटियों और आरती के स्वरों में कब बिस्मिल्ला ख़ाँ की शहनाई का मंगलाचरण जुड़ गया, पता ही नहीं चला। उनकी शहनाई की ये मंगल-ध्वनि केवल बनारस ही नहीं, पूरे देश की सुबह की मंगल-ध्वनि बन गई थी। जी, हाँ एक समय दूरदर्शन और आकाशवाणी पर सुबह-सुबह बजने वाली धुन दरअसल ख़ाँ साहब की शहनाई थी जिसके लिए उन्होंने ख़ासतौर पर सुबह के रागों को पिरोया था।

2014 के लोकसभा चुनावों में भी सबसे ज़्यादा चर्चा बनारस की हुई और साथ ही जिक्र निकला बिस्मिल्ला खाँ साहब का भी। जी हाँ, भारतरत्न बिस्मिल्ला खाँ साहब। वो बिस्मिल्ला ख़ाँ जिन्होंने आंगन में बजने वाले शादी के बाजे को शास्त्रीय संगीत के आलातरीन मंचों पर सजाकर इज़्ज़त दी और नवाज़ा।

जब चुनाव के लिए बनारस जाना हुआ तो भला खाँ साहब की मज़ार पर धोक देने क्यों ना जाते? फातमान में उनकी कब्र मानो उनकी ज़िंदगी की ही दास्ताँ बयान कर रही है। इतनी ऊँचाई हासिल करने के बाद भी फटी तैमद में घूमने वाले ख़ाँ साहब की मज़ार भी ना संगमरमर की है, ना वहाँ कोई बड़ा तामझाम है। नीम के पेड़ की छाँव के नीचे उस मिट्टी में उनका बस जिस्म ही दफ़्न है... रूह तो उनकी बनारस के घाटों पर और बाबा विश्वनाथ के मंदिर में मिलेगी!! लोहे की रैलिंग से बस चारों ओर छोटा घेरा है। बगल में वो तखत है जिस पर बैठकर खाँ साहब शहनाई बजाया करते थे। पीछे एक तस्वीर लगी है उनकी जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा है- भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहेब। नीचे जन्म और निधन की तारीख लिखी है। तस्वीर भी है बिना फ्रेम की और उस पर चढ़ी है पतली-सी माला जिसके सारे फूल सूख चुके हैं शायद उसी तरह जिस तरह बनारस और खाँ साहब को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले शासन और सरकार के नुमाइंदों की भावनाएँ सूख चुकी हैं।
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बहरहाल, हम अपना सजदा कर चलने को हुए तो बेंच पर बैठे शराफत भाई ने रोक लिया, कहा- अरे आप कहाँ जा रहे हैं, रुकिए खाँ साहब बस अभी शहनाई बजाने ही वाले हैं। ...शराफत भाई और उनके साथी से बात हुई तो वो बिस्मिल्ला खाँ साहब के बड़े मुरीद और दर्दी निकले। उन्होंने ख़ूब सुना है खाँ साहब को। और इसीलिए उनको लगता है कि वो तो बस अभी फिर कोई सुरीली धुन छेड़ देंगे। सच है... कलाकार कभी फनां नहीं होता... उसकी कला उसे ज़िंदा रखती है... ता-कायनात और उसके बाद भी...।

मज़ार से चलते वक्त ये अर्ज़ी ज़रूर हमने लगा दी कि जिस गंगा-जमुनी तहज़ीब के‍ लिए खां साहब एक मिसाल बने वो कायम रहे।

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