शास्त्रानुसार आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को 'विष्णुशयन' या 'देवशयनी' एकादशी कहते हैं। इस वर्ष देवशयनी एकादशी 1 जुलाई 2020 को है। 'देवशयनी' एकादशी अर्थात् भगवान् के शयन का प्रारंभ। देवशयन के साथ ही 'चातुर्मास' भी प्रारंभ हो जाता है। देवशयन के साथ ही विवाह, गृहारंभ, गृहप्रवेश, मुंडन जैसे मांगलिक प्रसंगों पर विराम लग जाता है।
हमारे सनातन धर्म की खूबसूरती यही है कि हमने देश-काल-परिस्थितिगत व्यवस्थाओं को भी धर्म व ईश्वर से जोड़ दिया। धर्म एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान रखने हेतु यह आवश्यक था कि इसके नियमों का पालन किया जाए।
किसी भी नियम को समाज केवल दो कारणों से मानता है पहला कारण है- 'लोभ' और दूसरा कारण है-'भय', इसके अतिरिक्त एक तीसरा व सर्वश्रेष्ठ कारण भी है वह है- 'प्रेम' किंतु उस आधार को महत्व देने वाले विरले ही होते हैं। यदि हम वर्तमान समाज के ईश्वर को 'लोभ' व 'भय' का संयुक्त रूप कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
क्या देव भी सोते हैं...!
हिंदू धर्म के देवशयन उत्सव के पीछे आध्यात्मिक कारणों से अधिक देश-काल-परिस्थितगत कारण हैं। इन दिनों वर्षा ऋतु प्रारंभ हो चुकी होती है। सामान्य जन-जीवन वर्षा के कारण थोड़ा अस्त-व्यस्त व गृहकेन्द्रित हो जाता है। यदि आध्यत्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो देवशयन कभी होता ही नहीं। जिसे निंद्रा छू ना सके और जो व्यक्ति को निंद्रा से जगा दे वही तो ईश्वर है।
विचार कीजिए परमात्मा यदि सो जाए तो इस सृष्टि का संचालन कैसे होगा! 'ईश्वर' निंद्रा में भी जागने वाले तत्व का नाम है और उसके प्राकट्य मात्र से व्यक्ति भी निंद्रा से जागने में सक्षम हो जाता है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं 'या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी' अर्थात् जब सबके लिए रात्रि होती है, योगी तब भी जागता रहता है। इसका आशय यह नहीं कि शारीरिक रूप से योगी सोता नहीं; सोता है किंतु वह चैतन्य के तल पर जागा हुआ होता है।
निंद्रा का नाम ही संसार है और जागरण का नाम 'ईश्वर'। आप स्वयं विचार कीजिए कि वह परम जागृत तत्व कैसे सो सकता है! देवशयन; देवजागरण ये सब व्यवस्थागत बातें हैं। वर्तमान पीढ़ी को यदि धर्म से जोड़ना है तो उन्हें इन परंपराओं के छिपे उद्देश्यों को समझाना आवश्यक है। हम देवशयन को अपनी कामनाओं व वासनाओं के संयम के संदर्भ में देखते हैं। हमारे शास्त्रों में भी देवशयन की अवधि में कुछ वस्तुओं के निषेध एवं वर्जनाओं के पालन का निर्देश है, जिससे साधक देवशयन की अवधि में संयमित जीवन-यापन कर सकें। देवशयन हमें त्याग के मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक होता है।
आइए शास्त्रानुसार जानें कि देवशयन की अवधि में साधक के लिए कौन से नियम व अनुशासन का पालन करना श्रेयस्कर है-
1. जो साधक वाक-सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं वे देवशयन की अवधि में मीठे पदार्थों का त्याग करें।
2. जो साधक दीर्घायु व आरोग्य की प्राप्ति चाहते हैं वे देवशयन की अवधि में तली हुई वस्तुओं का त्याग करें।
3. जो साधक वंशवृद्धि व पुत्र-पौत्रादि की उन्नति चाहते हैं वे देवशयन की अवधि में दूध एवं दूध से बनी वस्तुओं का त्याग करें।
4. जो साधक अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करना चाहते हैं वे देवशयन की अवधि में धातु के पात्र का त्याग कर पत्तों (पातल) पर भोजन करें।
5. जो साधक अपने समस्त ज्ञात-अज्ञात पापों का क्षय करना चाहते हैं वे देवशयन की अवधि में 'अयाचित' अथवा 'एकभुक्त' भोजन करें।
* 'अयाचित' से आशय उस भोजन से है जो याचना रहित अर्थात् बिना मांगे प्राप्त हो।