पहले की तुलना में आज लोगों में पर्यावरण को लेकर चिंता बढ़ी है, जागरूकता बढ़ी है। पहले पर्यावरण को लेकर चिंता सिर्फ किताबों तक सीमित थी। आज लोग खुलकर उन पर बात करने लगे हैं, खुद पहल करने लगे हैं और इससे बहुत हद तक चीजें बदली हैं। पहले भी हमारे चारों ओर गड़बड़ियाँ थीं, पर कारणों का पता नहीं था।
बड़े पैमाने पर उत्तराखंड में पेड़ काटे जा रहे थे, पहाड़ के पहाड़ नंगे हो रहे थे, लेकिन इसके दुष्परिणामों के बारे में स्थानीय लोगों को पता नहीं था। पहाड़ के लोगों ने इसकी भारी कीमत चुकाई। ग्लोबल वार्मिंग के जो खतरे आज लोग जान रहे हैं, उन्हें हम बहुत पहले महसूस कर चुके हैं।
1970 के बाद से पूरे इलाकों में भूस्खलन की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई, भूकम्प की घटनाएँ हुईं, तब लोगों को समझ आया कि इन प्राकृतिक आपदाओं का वन कटाई से कितना गहरा रिश्ता है। वनों की बेलगाम कटाई से पूरी आबादी का अस्तित्व कैसे संकट में पड़ सकता है, यह पहली बार इतना साफ-साफ लोगों को दिखाई दिया। पेड़ों-वनों का महत्व लोगों को चिपको आंदोलन के दौरान समझ आया। वनों को बचाने, पर्यावरण के संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर आम लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने में 'चिपको आंदोलन' की ऐतिहासिक भूमिका रही है।
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आज जब हम पर्यावरण की रक्षा की बात कर रहे हैं, उसके लिए एक अलग से दिवस मना रहे हैं तो इस आंदोलन को याद करना और उसकी सीख की रोशनी में आगे बढ़ना बहुत जरूरी है। 'चिपको आंदोलन' को जिस तरह से हमने वैज्ञानिक आधार पर विकसित किया, उसने इसे बहुत मजबूती दी। इस आधार के चलते इसे नकारना सरकार के लिए भी संभव नहीं हुआ। हमने बाकायदा तर्क दिया कि हिमालय तुलनात्मक रूप से युवा पहाड़ है और यहाँ इतने बड़े पैमाने पर वन कटाई और बाँधों के निर्माण से वहाँ का भूगर्भीय समीकरण प्रभावित हो रहा है। हमने इलाके के भूगर्भीय सर्वे के लिए दबाव बनाया।
आंदोलन के दबाव में उत्तरप्रदेश सरकार को यह माँग मानना पड़ी। इसके बाद राज्य सरकार को हमारे दबाव में एक समिति भी बनाना पड़ी, जिसमें आंदोलन के लोगों को भी रखा गया। भूगर्भीय समिति ने अपने सर्वेक्षण में उन्हीं बातों को सामने रखा, जिन्हें लेकर वहाँ की अँगूठा छाप औरतें और निवासी आंदोलन कर रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ कि वैज्ञानिकों ने आंदोलनकारियों के विरोध के आधार को माना। समिति ने साफ कहा कि वनों की कटाई पर रोक लगना चाहिए, किंतु साथ ही स्थानीय लोगों को वन पर अपने पारंपारिक अधिकार मिलने चाहिए। इससे 'चिपको आंदोलन' को बहुत बल मिला।
कम से कम अब यह स्थिति हो गई है कि किसी भी सरकार को पेड़ काटने, जंगल काटने से पहले सोचना पड़ता है। पहले ऐसा नहीं था। अगर पेड़ों, जंगलों और प्राकृतिक संपदा के बारे में सरकार अपनी सोच बदल दे, विकास के लिए उन्हें नष्ट करने वाली नीतियों को त्याग दे तो देश की आधी से अधिक अशांति दूर हो जाएगी।
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पूरे देश में 'ग्राम-वन' होने चाहिए। इसके लिए मैंने लंबा पत्र प्रधानमंत्री को लिखा है। ऐसा 'ग्राम-वन' जिनका प्रबंधन वन पंचायतों के पास हो। इन पंचायतों की सजग प्रहरी हों, स्थानीय महिलाएँ हों। बाहर के लोगों का इनमें दखल न हो। हमने सुझाव दिया है कि इन 'वन-पंचायतों' के नौ सदस्य हों, जिनमें 5 महिलाएँ हों। चूँकि सभी पहाड़ी या वन इलाकों में महिलाएँ ही मुख्य रूप से घर संभालती हैं, इसलिए वे ही जंगल और पर्यावरण की रक्षा बेहतरीन ढंग से कर सकती हैं। उनसे ज्यादा संवेदनशील इस मामले में कोई नहीं हो सकता।
'चिपको आंदोलन' की सबसे बड़ी सीख यही है कि अगर जंगलों को बचाना है तो उसके लिए महिलाओं को सबसे आगे रखना होगा। वे ही हमारे भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए सबसे अधिक हाड़-तोड़ मेहनत करती हैं। एक तरह से पहाड़ तो उन्हीं के बल पर खड़े हैं। 'ग्राम-वन' से मेरा तात्पर्य यह है कि हर गाँव के पास अपना एक वन हो। गाँव के आसपास की जमीन पर या तो उसे विकसित किया जाए या फिर पास के वन के रखरखाव की जिम्मेदारी गाँव की वन पंचायत को दी जाए। इस वन पर गाँव वालों का ही हक हो। वन विभाग का इसमें कोई दखल न हो। ऐसा करने से इस वन की रक्षा-विस्तार में गाँवों वालों की भूमिका लगातार बढ़ेगी।
मुख्य रूप से सरकार को यह समझना जरूरी है कि वनों को बचाने वाले वहाँ के स्थानीय ग्रामीण ही हो सकते हैं और उन पर विश्वास करना जरूरी है। अभी सारा वन संरक्षण का जिम्मा सरकार ने वन विभाग के ऊपर छोड़ रखा है, जिस पर स्थानीय लोगों को भरोसा ही नहीं होता। इस समीकरण को ठीक किए बिना वनों को बचाने का काम नहीं हो सकता। पहाड़ों में जहाँ भी स्थानीय लोग वन संरक्षण में लगे हैं, वे अपनी जान पर खेल कर और कई बार तो जान गँवा कर भी जंगलों को बचाने की कोशिश करते हैं। पहाड़ में जंगलों में आग लगने की घटनाएँ खूब हो रही हैं और इसके साथ आग बुझाने के लिए स्थानीय निवासियों के जलने-मरने तक की खबरें भी सामने आ रही हैं।
इस तरह की जमीनी योजनाओं पर विचार करने की बजाय सरकार हमेशा पर्यावरण जैसे अहम मसले को टालने की कोशिश करती है, यह दुखद है। इस समय सरकार का यह दावा है कि वन क्षेत्र (फॉरेस्ट कवर) बढ़ रहा है और पेड़ों के बढ़ते क्षेत्र को देखकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। मुझे ये आँकड़े और ये तर्क, भ्रामक लगता है। असलियत यह है कि घना जंगल कम हो रहा है और खुला जंगल बढ़ रहा है। यह एक बड़ा संकट है।
आज एक और बड़ा संकट यह है कि पर्यावरण संरक्षण की सारी लड़ाई विस्थापन-मुआवजे, पुनर्वास तक केंद्रित हो गई है। ऐसे में बड़े खतरों की कोई बात ही नहीं होती। किसी तरह से ज्यादा मुआवजा मिल जाए तो आंदोलन की धार कमजोर हो जाती है। सवाल मूल योजना पर उठाना चाहिए, क्योंकि आप घरों का पुनर्वास कर सकते हैं, चारागाह का नहीं, पशु-पक्षियों, पूरी सभ्यता का नहीं।
हमारे सामने टिहरी, नर्मदा का टीसता हुआ दुख है। जोशीमठ के पास विष्णु प्रयाग परियोजना के समय भी यही सवाल उठाए गए थे। उस समय हमने वैज्ञानिक आधार पर सरकार की योजना को चुनौती दी थी कि उसके नक्शे में बहुत गड़बडि़याँ हैं। उसने बड़े पैमाने पर भूस्खलन हो सकता है। सरकार ने हमारी बात मानी और चाई गाँव को मुआवजे के जाल में फाँस लिया। आज वह गाँव धँस रहा है। हमारा सीधा सवाल है कि कोई भी परियोजना बनाने से पहले क्यों नहीं वहाँ के लोगों से सलाह ली जाती है? क्यों उन्हें सिर्फ विस्थापन और मुआवजे के लिए याद करती हैं सरकारें? उनके जीवन को पूरी तरह से बदलने वाली योजनाओं को तैयार करते समय उन्हें क्यों नहीं हिस्सेदार बनाया गया?
(लेखक प्रसिद्ध पर्यवरणविद् व मैगसायसाय पुरस्कार विजेता हैं।)