परंपराओं से स्थापित प्रकृति व पर्यावरण का परस्पर संबंध
वट पूर्णिमा - बरगद को जानिए
डॉ. साधना सुनील विवरेकर
हमारी संस्कृति में सदियों से विभिन्न अवसरों पर वृक्षों को पूजने की परंपराएं प्रतिस्थापित हैं। प्राकृतिक संपदाओं के महत्व को समझना, उनका किफायती उपयोग करना, उनके संरक्षण को प्राथमिकता देना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। पशुओं, प्राणीमात्र के जीवन के प्रति संवेदनशीलता व अपनत्व बनाए रखने की मानसिकता को विकसित कर स्थायित्व देने के उद्देश्य से ही हमारे बुजुर्गों ने इन परंपराओं को बनाया, जिनका ठोस वैज्ञानिक आधार भी है व आज भी वे उतनी ही महत्वपूर्ण तथा एक सकारात्मक सोच का वहन करती हैं।
ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा के दिन वट (बरगद) की पूजा सुहागिनों द्वारा की जाती है। कहानी बताती है कि सावित्री का विवाह सत्यवान से तय हुआ जो अल्पायु था। सावित्री मन ही मन उसे अपना पति मान चुकी थी। अतः अल्पायु होने की बात जानने के उपरांत भी उसने सत्यवान से ही विवाह करने का अपना निश्चत दृढ़ रखा। विवाह पश्चात एक दिन दोनों बरगद की घनी छांव में विश्राम कर रहे थे, यम (मृत्यु के देवता) सत्यवान के प्राण हरने आए तब सावित्री ने उन्हें बड़ी चतुराई से 3 वचनों के जाल में फांस कर सत्यवान के शतायु होने का वरदान साथ ही सास-ससुर की आंखें व साम्राज्य तथा अपने माता-पिता की खुशहाली का वर मांग लिया। तब से वट को धागा बांध पति की लंबी आयु, उसके अच्छे स्वास्थ्य व प्रगति उन्नति की कामना में इस व्रत का प्रारंभ हुआ।
आज के युग में यह हास्यास्पद लग सकता है, पर पति-पत्नी के रिश्ते में समर्पण सामंजस्य व सहजता, सौहार्द, सहभाव सब कुछ हर युग में अपेक्षित है। आपस में स्नेह व समझदारी हो तो संकट की हर घड़ी पार की जा सकती है। एक दूसरे के प्रति विश्वास व त्याग की भावना प्रबल हो तो जीवन पथ पर आने वाली हर मुश्किल का हल निकल ही आता है। आपस के सामंजस्य से, तालमेल से जीवन सुखद व आनंदमय हो जाता है। पति-पत्नी के रिश्ते सुखद व सुसंस्कृत हो, तो नई पीढ़ी को अच्छे संस्कार मिलते हैं जिससे परिवार में, समाज में, राष्ट्र में एक स्थिरता का प्रसन्नता का, सुख का, सुकून का माहौल बनता है जो वास्तव में उन्नति व प्रगति के शिखर का सच्चा पर्याय बनता है।
इस तरह सावित्री प्रतीक है नारी के पति व ससुराल के प्रति प्रेम, स्नेह, समर्पण के भाव को दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ निभाने की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति की, जिसके दम पर वह यम/मृत्यु (असंभव को संभव) तक से लड़ कर जीत गई। वरना आज असहनशीलता व अहं की टकराहट से रिश्ते बिखर रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं व बच्चे जीवन भर सिंगल पेरेंट्स के कारण मानसिक त्रासदी से गुजर रहे हैं। विवाह के पश्चात् भी मायके की जिम्मेदारी निभाने का जो जज्बा सावित्री के तीसरे वर में दिखाई देता है। यह आधुनिक सोच से भी मेल खाता है व बेटियों को अपनी दोहरी जिम्मेदारी भी दृढ़ता से निभाने का संदेश देता है।
यह त्यौहार प्रकृति से सानिध्य बनाए रखने का, उन्हें देव समझ पूजने का, इसी बहाने उनसे आत्मीयता कायम करने की प्रेरणा व सीख देता है। ये वृक्ष हमारी धरोहर हैं, इनकी महत्ता समझ इनके प्रति संवेदना रखने पर अपनत्व रखने पर ही हम इनका संरक्षण कर सकेंगे। अतः ये परम्पराएं जो हमें वृक्षों से पर्यावरण से जोड़ती हैं अत्यंत महत्वपूर्ण है।
बरगद की विशेष बातें, अगले पेज पर...
बरगद, वट, बनयान, फाइकस बेन्गालेनसिस -
1 बरगद हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।
2 हिन्दी में बरगद, संस्कृत में वटवृक्ष, मराठी में वट, अंग्रेजी में बनयान व वनस्पतिशास्त्र में इसे फाइकस बेन्गालेनसिस कहा जाता है।
3 कलकत्ता में इसका 250 वर्ष पुराना सबसे बड़ा वृक्ष है। इसलिए इस प्रजाति का नाम फाइकस बेन्गालेनसिस पड़ा।
4 इसका पुराना तना सड़ने के बाद भी यह अपनी वायवीय जड़ों के कारण हरा भरा रहता है। इसलिए यह दीर्घजीवी व अमरता का प्रतीक है।
5 प्राचीन समय में भारतीय व्यापारी (बनिया) अपना व्यापार इसी की घनी छाया में करते थे इसलिए इसका नाम बनयान पड़ा।
6 इसकी जड़े स्तंभ (तने) से निकल धरती की ओर विकसित होती हैं व पुनः बाहर निकलती हैं।
7 यह वृक्ष अधिक तापमान व अधिक उमस वाले क्षेत्रों में पनपता है।
8 इसके बीजों को 12 घंटे गरम पानी में भिगोकर रखने के बाद बोने से ही अंकुरण से नया पौधा तैयार होता है।
9 इसमें 2 प्रकार की जड़ें पाई जाती हैं -
1. सामान्य जड़ें - धरती के अंदर नीचे की ओर विकसित होती है।
2. अस्थानिक जड़ें - पेड़ की वायवीय शाखाओं से निकल भूमि में प्रवेश कर स्तंभ (खंबे) की तरह पेड़ को आधार देती हैं और स्तंभ मूल कहलाती है।
10 पत्तियां बड़ी, चमड़े जैसी मजबूत व चमकदार होती हैं जिन्हें कृष्ण की जन्मस्थली माना जाता है।
11 इससे निकलने वाला दूध जैसा स्त्राव दर्द निवारक (दांत के दर्द) होता है।
12 इससे प्राप्त ल्यूकोसाइनाड्स - डायबिटीज (मधुमेह) की दवा में प्रयुक्त होता है।
13 इसकी लकड़ी पानी से जल्दी खराब नहीं होती अतः फर्निचर में काम आती है।
14 तने व जड़ों से प्राप्त रेशा, पेपर व रस्सी बनाने के काम आता है।
15 ताजे फल सुखाकर खाए जाते हैं।
16 पुष्पक्रम विशिष्ठ प्रकार - हाइपेन्थोडियम कहलाता है।
17 यह इण्डोनेशिया में एकता का प्रतीक माना जाता है।
18 इसका आकर्षक बोन्साई सुंदरता के कारण बहुमूल्य व महंगा होता है।
भारत के देहातों में इसके आसपास ट्रैफिक सर्कल, बस स्टैंड होते हैं व रात में चौपाल लगती है। अतः यह सामाजिक संस्कृति का परिचायक है।
प्रकृति की इस अप्रतीम अद्भुत देन सुहाग की लंबी उम्र की कामना व परिवार के हित के लिए इसके संरक्षण को परंपराओं की आड़ में ही सही, विकसित करने का आधार वैज्ञानिक व आधुनिक है।
ऐसी स्वस्थ परंपराओं को नए स्वरूप में अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर सहेजने की जरूरत है। आज के युग में प्रदूषण के प्रकोप से, प्राकृतिक विपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी के रूप में इन्हें पुनर्स्थापित करना सामयिक सार्थक है।