वे भारत के पहले और अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें 'महामना' की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृभाषा तथा भारत माता की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले मालवीयजी ने राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।
मालवीयजी के विचारों में राष्ट्र की उन्नति तभी संभव है, जब वहां के निवासी सुशिक्षित हों। बिना शिक्षा के मनुष्य पशुवत माना जाता है। मालवीयजी जीवन भर गांवों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार में जुटे रहे। मालवीयजी का मानना था कि व्यक्ति अपने अधिकारों को तभी भलीभांति समझ सकता है, जब वह शिक्षित हो। संसार के जो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर हैं, वे शिक्षा के कारण ही हैं।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी-1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि उन्हें फारसी अरबी के बड़े-बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूंथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी। मालवीयजी संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी तीनों ही भाषाओं के ज्ञाता थे। वे अपने सरल स्वभाव के कारण लोगों के बीच प्रिय थे। मालवीयजी का निधन 1946 में हो गया था।