दिल्ली बॉर्डर पर 378 दिन से चल रहा किसान आंदोलन खत्म हो गया है। किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन को खत्म करने का एलान करते हुए कहा कि 11 दिसंबर से किसान अपने घरों की ओर लौंटेगे। संयुक्त किसान मोर्चा ने घोषणा की है कि 15 दिसंबर तक किसान सभी जगह धरनास्थल खाली कर देंगे।
किसान आंदोलन के केंद्र में रहे उत्तरप्रदेश और पंजाब में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में किसान आंदोलन एक बड़ा मुद्दा है। दोनों ही राज्यों में पिछले लंबे समय से किसान सियासत के केंद्र में है। सियासी दल किसानों के मुद्दें पर पूरा माइलेज लेने की होड़ में जुटे हुए है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या किसान संगठन भी चुनाव मैदान में उतरेंगे? क्या किसान नेता चुनावी मैदान में अपनी किस्मत अजमाते हुए दिखाई देंगे? यह ऐसे सवाल है कि जो अब पूछे जा रहे है। ऐसे में जब विधानसभा चुनावों की तारीखों के एलान में बहुत लंबा समय नहीं शेष बचा हैै, तब किसान आंदोलन के खत्म होने पर यह सवाल और भी बड़ा हो गया है।
गौरतलब है कि बंगाल विधानसभा चुनाव में संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े नेता खुलकर भाजपा के खिलाफ प्रचार करते नजर आए थे। इसके साथ ही आंदोलन के दौरान ही पंजाब बड़े के किसान नेता और संयुक्त किसान मोर्चा के अहम सदस्य गुरनाम सिंह चढ़ूनी कह चुके है कि किसान यूनियन को पंजाब विधानसभा चुनाव लड़ना चाहिए और एक वैकल्पिक मॉडल पेश करना चाहिए।
हरियाणा भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के प्रमुख गुरुनाम सिंह चढूनी ने पिछले दिनों समाचार एजेंसी को दिए अपने इंटरव्यू में भी कहा कि हम मिशन पंजाब चला रहे है। हम चुनाव के लिए अपनी पार्टी बनाएंगे। अगर हमारी पार्टी पंजाब में सत्ता में आती है तो 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सभी लोग हमारी तरफ देखेंगे।
वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की अगुवाई करने वाले भारतीय किसाा यूनियन के नेशनल मीडिया इंचार्ज धर्मेंद्र मलिक 'वेबदुनिया' के इस सवाल क्या अब वह चुनाव में सक्रिय भागीदारी करेंगे, पर धमेंद्र मलिक कहते हैं कि चुनाव में नहीं उतरेंगे लेकिन अगर संगठन से जुड़ा कोई व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहेगा तो वह चुनाव लड़ सकता है।
वह आगे कहते है कि दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन भले ही खत्म हो गया हो लेकिन स्थानीय तौर पर आंदोलन अब भी जारी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान अपनी मांगों को लेकर गन्ना मिलों के बाहर धरने पर बैठे है।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का बयान कि “जनता बदलाव चाहती है” आने वाले सियासी समीकरणों का काफी कुछ इशारा करता है। ऐसे में जब अब संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन को खत्म कर दिया है तब आंदोलन में शामिल किसान मोर्चा खुलकर राजनीति में उतरेगा यह भी सवाल बना हुआ है?
वहीं वेबदुनिया से बातचीत में किसान मजदूर महासंघ के राष्ट्रीय शिवकुमार शर्मा कक्काजी कहते हैं कि हमारे कुछ साथी जरूर कहते हैं कि पार्टी बनाकर देश में चुनाव लड़ना चाहिए लेकिन मैं इसके पक्ष में नहीं हूं। किसान संगठनों को चुनावी राजनीति से दूर रहना चाहिए। अगर कोई किसान संगठन राजनीति में जाता है तो ऐसे में उसका टारगेट वोट हो जाता है उसका टारगेट किसान की समस्या नहीं होती है।
वह आगे कहते हैं कि बातचीत में शिवकुमार शर्मा कक्काजी आगे कहते हैं कि आज 80 फीसदी सांसद और देशभर में 70 फीसदी विधायक किसान परिवार से जुड़े है और एक तरह से किसानों की दुर्दशा के जिम्मेदार भी यहीं लोग है, राजनीति में आने के बाद यह किसान समाज के शोषक हो जाते है। इसी प्रकार जब किसान नेता विधायक या सांसद बनकर जाएगा तो वह अपना ही भला करेगा। किसान उसकी प्राथमिकता नहीं रहेगा। आज के दौर में एक नॉन पॉलिटिकल संगठन ही देश को दिशा दे सकता है और देश की दिशा को बदल सकता है। जितने भी किसान संगठन पॉलिटिकल है वह समाप्त हो गए।
वहीं उत्तरप्रदेश की सियासत को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि चुनाव लड़ना और आंदोलन करना दोनों बहुत अलग-अलग मुद्दें है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां चुनाव में जाति फैक्टर एक बड़ा मुद्दा रहता है वहां किसान संगठन चुनाव में कितना कामयाब हो पाएंगे यह बड़ा सवाल है।