32 से 50 कैसे हुए किसान संगठन? 2020 से अभी तक कितने बदले हालात?

वेबदुनिया न्यूज डेस्क

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024 (20:10 IST)
असहमति से संगठन में पड़ी फूट
संगठन के बड़े नेताओं ने बनाई दूरी
BKU भी है नदारद
 
Kisan Andolan 2.0 : किसान एमएसपी सहित कई मांगों को लेकर फिर प्रदर्शन कर रहे हैं। दिल्ली मार्च के लिए किसान सीमाओं पर डटे हुए हैं। पंजाब और हरियाणा सहित कुछ प्रदेशों से किसान दिल्ली पहुंच चुके हैं। 4 साल बाद किसान आंदोलन की तस्वीर बदल चुकी है और हालात भी बदल गए हैं। 
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राजनीतिक संगठन बने : भारतीय किसान यूनियन (BKU) संयुक्त किसान मोर्चा के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए 16 फरवरी को भारत बंद का आह्वान किया गया है और 14 मार्च को दिल्ली कूच का आह्वान किया गया। संयुक्त किसान मोर्चा समेत अन्य गठबंधन में विभाजन हो गया है। असहमतियों के कारण कुछ धड़ों ने राजनीतिक संगठन बना लिए हैं।
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ऐसे शुरू हुए थे मतभेद : पिछले आंदोलन में सरकार द्वारा कृषि कानूनों के रद्द होने के बाद जब किसानों ने वापस लौटना शुरू किया तो समूहों के बीच मतभेद शुरू हो गए थे। इससे ये कई गुटों में बंट गए। अब सक्रिय किसान संगठनों की संख्या करीब 50 है जबकि 2020 में 32 थी। मीडिया खबरों के मुताबिक 200 से अधिक किसान संगठन दिल्ली जाने के आंदोलन में शामिल हैं।
 
कौन कर रहा है अगुवाई : इस बार आंदोलन की अगुवाई संयुक्त किसान (अराजनैतिक) और किसान मजदूर मोर्चा कर रहे हैं। दोनों संगठन पहले संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा रहे हैं। किसान मजदूर मोर्चा 18 किसानों का ग्रुप हैं। सरवन सिंह पंढेर जिसके संयोजक हैं। दोनों ही समूहों में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के किसान शामिल हैं।
 
डल्लेवाल का अलग संगठन : जगजीत सिंह डल्लेवाल पहले संयुक्त किसान मार्चा का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने कृषि संगठन बीकेयू के छोटे समूहों को साथ लिया है। बाद में बलबीर सिंह राजेवाल के साथ मिलकर नया संगठन बना लिया। एक संगठन एसकेएम (गैर-राजनीतिक) का गठन किया है। इसमें मप्र, हरियाणा और राजस्थान के किसान समूह शामिल हैं। किसान मजदूर मोर्चा के साथ मिलकर दिल्ली चलो के आह्वान के साथ अमृतसर और बरनाला में रैलियां कीं। 
 
किसान मोर्चा में प्रमुख कौन : 10 किसान समूहों ने मिलकर किसान मोर्चा का गठन किया है। इसके संयोजक सरवन सिंह पंढेर हैं। इस संगठन में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के एसकेएम (गैर-राजनीतिक) जुड़े हुए हैं। इसके अलावा भारतीय किसान यूनियन, ऑल इंडिया किसान फेडरेशन, किसान संघर्ष कमेटी पंजाब, बीकेयू (मानसा) और आजाद किसान संघर्ष कमेटी एक साथ आ गए हैं।
पिछले आंदोलन से कितना अलग : 2020 में किसानों ने कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए आंदोलन किया था। बड़े नेताओं और संगठन दिल्ली में जुटे थे। मोदी सरकार को आंदोलन के आगे झुककर कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद इसका ऐलान किया था, लेकिन इस बार किसान आंदोलन के हालात बदले हुए दिखाई दे रहे हैं। इस बार राकेश टिकैत और चढ़ूनी जैसे नेता आंदोलन में सक्रिय नहीं हैं। हालांकि दोनों नेताओं के बयान भी सामने आए हैं। 
 
सरकार की पूरी तैयारी : लोकसभा चुनाव से पहले आंदोलन को देखते हुए मोदी सरकार लगातार किसानों को मनाने के प्रयास कर रही है। सिंधु बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर, इरौंदा बॉर्डर और शंभू बॉर्डर पर सुरक्षा बल तैनात कर दिए गए हैं। 
 
किसान नेताओं और मंत्रियों की दो दौर की बातचीत हो चुकी है। तीसरी दौर की बातचीत भी होने वाली है। भाजपा किसान आंदोलन को गंभीरता से ले रही है। उसने इस डैमेज से बचने के लिए प्रदेश में अपनी ग्राम परिक्रमा यात्रा शुरू कर दी है, जिसके केंद्र में किसान हैं।
 
यूपी में नहीं है सुगबुगाहट : किसानों के 50 से ज्यादा संगठन केंद्र सरकार के खिलाफ दिल्ली में लामबंद हो रहे हैं। उत्तरप्रदेश से कोई आवाज नहीं आ रही है। पिछली बार किसान आंदोलन के हीरो रहे राकेश टिकैत आंदोलन को लेकर सक्रिय नहीं दिखाई दे रहे हैं जबकि पिछली बार उन्होंने मोदी सरकार की परेशानियों को खूब बढ़ाया था।
 
जयंत चौधरी ने बदला पाला : उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी ही किसानों के समर्थन में लगातार आवाज बुलंद कर रही है जबकि उनके साथी रहे और जाट तथा किसान मुद्दों की राजनीति के लिए पहचाने जाने वाले जयंत चौधरी अब एनडीए में आ गए हैं। इसका भी आंदोलन पर कहीं न कहीं असर हो रहा है। 
क्या बोला भाकियू : दिल्ली कूच के आंदोलन में भारतीय किसान यूनियन शामिल नहीं है क्योंकि अलग-अलग किसान संगठनों की अपनी अलग-अलग मांग होती है। भारतीय किसान यूनियन के इस आंदोलन में शामिल न होने से पुलिस प्रशासन को काफी ज्यादा राहत मिलेगी और उन्हें अन्य किसान संगठनों को दिल्ली की तरफ कूच करने से रोकने में भी काफी हद तक सहूलियत होगी।
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भ्रम की स्थिति : विभाजन बढ़ने से संगठनों में भ्रम हो गया है। जब विभिन्न समूह विरोध प्रदर्शन करते हैं, उनके साझा उद्देश्यों के बावजूद, मुख्य रूप से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के लिए कानूनी गारंटी हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। बड़े नेताओं का कहना है कि संगठन ने जब आंदोलन की प्लानिंग की तो इन्हें शामिल नहीं किया गया। Edited By : Sudhir Sharma

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