माय पापा इज ग्रेट!

- विशाल मिश्रा
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साहित्यकारों, लेखकों से मुझे दिली शिकायत है कि वे माँ पर तो खूब लिखते हैं। यदि माँ पर लिखे संपूर्ण साहित्य को संकलित किया जाए तो रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों के बराबर ग्रंथ तैयार हो सकता है लेकिन पिता और भाई के बारे में कोई साहित्य चिराग लेकर ढूँढने से भी शायद नहीं मिलेगा। इस संदर्भ में वाकई 'फादर्स डे' की जरूरत महसूस होती है।

बीवी-बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा पिता अधिकांश समय अपना 'मकान' से बाहर गुजारता है। शायद इसी के चलते उसे 'घर' से भी बाहर मान लिया गया हो। इसकी तुलना मैं करना चाहूँगा मकान बनाने वाले बिल्डर या ठेकेदार से। जिसकी भूमिका नहीं के बराबर होकर भी बहुत होती है तथा बहुत कुछ होकर भी नहीं के बराबर होती है।

आता है साइट विजिट करता है, निर्देश देता है, चला जाता है। सब कुछ ठीक है तो ठीक, गलत है तो सुधरवाता है और फिर चला जाता है। कुछ विशेष मौकों पर जरूर सीट लगाए दिनभर एक जगह बैठा रहता है। जैसे छत डलवाना आदि।

किचन से लेकर बच्चों के होमवर्क, घर-गृहस्थी सँभालने में घर के अंदर जो भूमिका माँ की होती है, वही घर की चहारदीवारी के बाहर सारे काम पिता को भी करने होते हैं। माँ और बच्चों के बीच कोई शिकायत हुई तो दूर कर पुन: उनमें सामंजस्य कौन बिठाते हैं पापा।

पैरेंट्‍स डे है या स्कूल जाकर मिलना है, बाजार से खरीदारी करवाना है तो डैडी। बच्चों का इलाज करवाना है, घुमाने ले जाना है आदि काम बगैर पापा के शायद संभव नहीं। अपनी व्यस्तता से समय निकालकर बमुश्किल 2-3 घंटे वह रोज घर में दे पाते हैं। कुछ टॉपिक पर चर्चा करनी है मम्मी आकर बैठीं तो शूज पहनते जा रहे हैं, टाई लगा रहे हैं, ऑफिस का सामान कलेक्ट किया और जाते-जाते बोल गए। मैं लंच टाइम में फोन कर दूँगा उस पर डिस्कस कर लेंगे।

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मेरा कॉलेज लाइफ में मित्र था। बोलता यार मेरे बापू शराब बहुत पीते हैं, हम बच्चों को डॉटते भी रहते हैं। उनकी माँ से भी नहीं बनती। अपने काम से शराब पीकर आते हैं या कभी घर बैठकर पी लेते हैं, खाना-खाकर या तो सो जाते हैं या फिर दोस्तों के साथ चले जाते हैं। वर्षों मैंने उनका यही सिलसिला देखा।

लेकिन मेरे बापू में एक क्वॉलिटी है-वह क्या? कि गाँव में एक बार उन्होंने बंजर जमीन ली जिस पर वर्षों से कोई कुछ उगा नहीं सका था मेरे बापू ने वहाँ भी जी-तोड़ मेहनत करके तरह-तरह की फसलें लहलहा दीं और उस जमीन की कीमत बढ़ा दी। जिसे देखकर पूरा गाँव दंग रह गया।

वह बताता, आज भी मैं बापू से कहता हूँ गाँव छोड़कर दिल्ली आ जाओ, यहीं रहेंगे। तो बोले ना! जमीन किसान की माँ होती है इसे छोड़कर नहीं जाऊँगा। यहीं जिया हूँ, यहीं मरूँगा। अपनी मातृभूमि से लगाव तो कोई मेरे बापू से सीखे। जबकि वह ज्यादा पढ़े-लिखे भी नहीं हैं और जननी, जन्मभूमि स्वर्ग से महान है। शायद ही किसी के मुँह से सुना हो उन्होंने कभी।

आज भी सोचता हूँ कि आज मैं और भाई जिस मुकाम पर हूँ, उनकी मेहनत और योगदान को हटा दिया जाए तो क्या यह संभव था तो जवाब मिलता है कतई नहीं। मैंने अपने जीवन में कोई ऐसा मुश्किल समय नहीं देखा कि मुझे कभी उनसे कोई सहारा नहीं मिला हो।

हमारी एक-एक गतिविधि पर उनकी नजर होती है। रात में समय पर घर आ रहे हैं या नहीं, किन दोस्तों के साथ उठना-बैठना है। बीवी-बच्चों के प्रति लापरवाह तो नहीं हैं आदि बातें सप्ताह में एक बार पूछते हैं तो लगता है अभी तो मैं शायद वही स्कूल जाते हुए बच्चे से बड़ा नहीं हुआ हूँ।

एक-दो बार पूछ भी लिया कि इतनी फिक्र क्यों करते हैं हमारी, क्यों टेंशन लेते हैं क्या हम अभी भी बड़े नहीं हुए? तो बोले बेटा तुम्हारी कमर लटक जाएगी और बाल सफेद हो जाएँगे लेकिन हमारे लिए तो बच्चे ही रहोगे। 'फादर्स डे' के अवसर पर महानुभावों से मेरा आग्रह है कि अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम से हमेशा के लिए घर जरूर ले आएँ, अभी भी उनके अनुभवों की आपको और आपके बच्चों को उनके लाड़-प्यार की जरूरत है। गाड़ी-बंगला, दुनिया की कोई भी भौतिक सुख-सुविधा माँ-बाप के साथ की बराबरी नहीं कर सकती।

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