ग़ालिब का ख़त-17

क्यों साहिब, इसका क्या सबब है कि बहुत दिन से हमारी-आपकी मुलाक़ात नहीं हुई। न मिर्जा साहिब ही आए, न मुंशी साहिब ही तशरीफ़ लाए।

Aziz AnsariWD
हाँ, एक बार मुंशी शिवनारायण साहिब ने करम किया था और ख़त में यह रक़म किया था कि अब एक फ़र्मा बाकी रहा है। इस राह से मैं यह तसव्वुर कर रहा हूँ कि अगर एक फ़र्मा नस्र का बाक़ी था, तो अब क़सीदा छापा जाता होगा और फ़र्मा क़सीदे का था, तो अब जिल्दें बननी शुरू हो गई होंगी।

तुम समझे? मैं तुम्हारी, और भाई मुंशी नबी बख्‍श साहिब और जनाब मिर्जा हातिम अली साहिब के ख़तूत के आने को तुम्हारा और उनका आना समझता हूँ। तहरीर गोया वह मुकालमा है जो बाहम हुआ करता है। फिर तुम कहो मुकालमा क्यों मौकूफ है और अब क्या देर है और वहाँ क्या हो रहा है? भाई साहिब को कापी की तसीह से फ़रागत हो गई।

मिर्जा साहिब ने जिल्दें सह्‍हाफ़ को दे दीं? मैं अब उन किताबों का आना कम तक तसव्वुर करूँ? दशहरे में एक-दो दिन की तातील मुक़र्रर हुई। कहीं दीवाली की तातील तक नौबत न पहुँच जाए।

हाँ साहिब, तुमने कभी कुछ हाल क़मरुद्‍दीन ख़ाँ साहिब का न लिखा। आगे इसेस तुमने अगस्त, सितंबर में उनका आगरे का आना लिखा, फिर वह अक्टूबर तक क्यों न आए? वहाँ तो मुंशी गुलाम ग़ौस खाँ साहिब अपना काम बदस्तूर करते हैं, फिर ये उस दफ्तर में क्या कर रहे हैं? कहीं किसी और काम पर मुऐयन हो गए हैं? इसका हाल जल्द लिखो। मुझको याद पड़ता है ‍कि तुमने लिखा था कि मुंशी गुलाम ग़ौस खाँ साहिब को एक गाँव जागीर में मिला है। मौलवी क़मरुद्दीन खाँ साहिब उसके बंदोबस्त को आया चाहते हैं। उसका ज़हूर क्यों न हुआ? इन सब बातों का जवाब जल्द लिखिए।

जनाब मिर्जा साहिब को मेरा सलाम कहिए और पयाम कहिए कि किताब का हुस्न कानों से सुना, दिल को देखने से ज्यादा यक़ीन आया। मगर आँखों को रश्क है कानों पर और कान चश्मकज़नी कर रहे हैं आँखों पर। यह इरशाद हो कि आँखों का हक आँखों को कब तक मिलेगा।

भाई साहिब को बाद अज़ सलाम कहिएगा कि हज़रत अपने मतलब की तो मुझे जल्दी नहीं है। आपकी तख़फ़ीफ़-ए-तसदीह चाहता हूँ, यानी अगर कापी का किस्सा तमाम हो जाए तो आपको आराम हो जाए।

जनाब मुंशी शिवनारायण साहिब की इनायतों का शुक्र मेरी ज़बानी अदा कीजिएगा और यह कहिएगा कि आपका ख़त पहुँचा, चूँकि मेरे ख़त का जवाब था और मुआहिज़ा कोई अमर जवाब तलब न था, इस वास्ते उसका जवाब नहीं लिखा। ज्यादा, ज्यादा।

17 अक्टूबर 1858 ई. राक़िम गा़लिब