हज़रत, बहुत दिनों में आपने मुझको याद किया। साल-ए-गुज़श्ता इन दिनों में मैं रामपुर था। मार्च सन् 1860 में यहाँ आ गया हूँ, अब यहीं मैंने आपका ख़त पाया था, आपने सरनामे पर रामपर का नाम नाहक़ लिखा। हक़ तआ़ला वली-ए-रामपुर को सद-ओ-सी साल सलामत रखे, उनका अ़त़िया माह ब-माह मुझको पहुँचता है। कर्म गुस्तरी व उस्ताद परवरी कर रहे हैं। मेरे रंज-ए-सफ़र उठाने की और रामपुर जाने की हाजत नहीं।
मौलवी अहमद हसन अ़र्शी को फ़िराक़ को मैं नहीं समझा कि क्यों वाक़े हुआ, बल्कि यह भी नहीं मालूम कि आप और वह यकजा कहाँ थे और कब थे? ख़लीफ़ा हुसैन अ़ली साहिब रामपुर में मुझसे मिले होंगे, मगर वल्लाह, मुझको याद नहीं। निसयान का मर्ज़ लाहक़ है। हाफ़िया हाफ़िज़ा गोया न रहा। 22 फ़रवरी 1861 ई. ---------------
जनाब क़ाज़ी साहिब को मेरी बंदगी पहुँचे।
मुकरीम मौलवी गुलाम ग़ौस ख़ाँ बहादुर मीर मुंशी का क़ौल सच है। अब मैं तंदुरुस्त हूँ। फोड़ा-फुंसी, ज़ख्म जर्रहत, कहीं नहीं। मगर ज़ौफ़ की वह शिद्दत है कि खुदा की पनाह-जही़फ़ क्योकर न हो। बरस दिन साहिब-ए-फ़राश रहा हूँ। सत्तर बरस की उम्र। जितना ख़ून बदन में था, बेमुबालग़ा आधा उसमें से पीप होकर निकल गया।
सिन-ए-नमू कहाँ, जो अब फिर तोलीद-ए-दम-ए-सालेह को? बहरहाल, ज़िंदा हूँ और नातवाँ और आपकी पुरसिशहा-ए-दोस्ताना का ममनून-ए-अहसान।