होम्योपैथी केस हिस्ट्री वृद्धावस्था में इंसान वैसे ही दूसरों पर आश्रित रहता है, ऐसे में उसे लकवा लग जाए तो जिंदगी दूभर हो जाती है। लकवे का इलाज जितना जल्दी हो सके करा लेना चाहिए। जल्दी इलाज से लकवे के पूरी तरह ठीक होने के अवसर बढ़ जाते हैं।
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यह एक 63 साल के बुजुर्ग की व्यथाकथा है जिन्हें बाएँ अंग में लकवे का असर हो गया था। उन्हें कुछ भी गुटकने में मुश्किल होने लगी थी। 20 दिन पहले उन्हें एकाएक बाएँ अंग में कमजोरी लगने लगी थी। थोड़ी देर बाद उनकी कमजोरी बढ़ने लगी और उन्हें बाँह भी हिलाने में तकलीफ होने लगी। ऐसा होने के कोई 30 मिनट बाद उन्होंने एक उल्टी की और बेहोश हो गए।
उन्हें तत्काल अस्पताल पहुँचाया गया। वहाँ 12 घंटे बाद उन्हें होश आया। बाएँ अंग से उनका नियंत्रण अब खत्म हो चुका था। चेहरे पर भी लकवे का असर हो चुका था। चिकित्सकों ने इसे लेफ्ट साइड हैमीप्लिजीया कहा जो दिमागी दौरे के बाद हुआ था।
मरीज को बोलने में भी कठिनाई आने लगी थी। बमुश्किल वह कुछ शब्द बोल पाता था। मरीज के मुँह से लगातार थूक गिरता रहता था क्योंकि वह पूरा मुँह बंद ही नहीं कर पाता था। अब मरीज पूरी तरह बिस्तर पकड़ चुका था।
परिस्थितियों के अनुरूप उनका इलाज शुरू हुआ। हालात में थोड़ा सुधार हुआ। इस बीच एकाएक उनकी तबीयत फिर से बिगड़ गई और वे पहले जैसी हालत में पहुँच गए। एक हफ्ते बाद अस्पताल ने मरीज को औषधियाँ और फीजियोथेरेपी देने की सलाह देकर बिदा कर दिया। 15 दिनतक चिकित्सकों की सलाह पर घर पर इलाज चलता रहा लेकिन कोई सुधार नहीं होता दिखाई दिया।
एक बार फिर अस्पताल में भर्ती होकर मरीज घर लौट आया। कुछ दिनों बाद मरीज को गुटकने में तकलीफ होने लगी। चिकित्सकों ने गले में फीडिंग ट्यूब उतार दी ताकि श्वासनली में गलती से भोजन जाने की आशंका ही न रहे।
लकवे का असर अब दूसरी माँसपेशियों पर भी होने लगा था। मरीज का चलना-फिरना बंद था क्योंकि उसके बाएँ अंग में ताकत ही नहीं थी। मरीज को बोलने में भी कठिनाई आने लगी थी। बमुश्किल वह कुछ शब्द बोल पाता था। मरीज के मुँह से लगातार थूक गिरता रहता था क्योंकि वह पूरा मुँह बंद ही नहीं कर पाता था। अब मरीज पूरी तरह बिस्तर पकड़ चुका था।
मरीज की मूत्रनली में एक थैली लगा दी गई थी। मरीज बिस्तर पर ही मल त्याग करता था। चूँकि मरीज को नली के जरिए भोजन पहुँचाया जाता था इसलिए नली हमेशा उनके गले में लगी रहती थी। इससे संक्रमण होने का जोखिम भी था।
मरीज के परिजनों ने होम्योपैथिक इलाज कराने का मन बनाया। मरीज को देखने के बाद परिवार से हिस्ट्री ली। मालूम हुआ की मरीज पिछले 20 सालों से अस्थमा की दवाएँ खा रहा था। वह तंबाकू खाता था और सिगरेट भी पीता था। मरीज बहुत गुस्सैल था और चीजों को यथास्थान रखने का आदी थी। अस्त-व्यस्तता देखकर बुरी तरह चिढ़ जाता था।
लक्षणों के आधार पर 'लेकेसिस' नामक दवा से इलाज शुरू किया। शुरू में दवा का असर कम रहा। पर एक हफ्ते बाद उनकी बाँह और पैरों में ताकत लौटने लगी। अब मरीज बिना सपोर्ट के अपने आप बैठने लगा। मुँह से कुछ शब्द भी निकलने लगे थे। दिनोंदिन मरीज की हालत सुधर रही थी। कुछ दिनों में मुँह से आहार देने वाली ट्यूब भी निकाल दी गई। अब मरीज का खाना गुटकना शुरू हो गया।
यद्यपि मात्रा बहुत कम थी लेकिन फायदा हो रहा था। कुछ दिनों बाद मूत्र नलिका में लगा हुआ कैथेटर भी निकल गया। मरीज अब मल मूत्र का त्याग अपनी मर्जी सेकरने में सक्षम हो गया। एक महीने के इलाज और फीजियोथेरेपी के बाद मरीज पैदल चलने लगा।