हिन्दी। हमारी अपनी हिन्दी। हम सबकी हिन्दी। लेकिन क्या सचमुच हमारी यह भाषा हम सबकी भाषा है? इंटरनेट के कैनवास पर अपने शब्द फूलों से खिल-खिल जाने वाली हमारी हिन्दी को लेकर इतने भ्रम, भ्रांतियां और भड़काने वाले बयान आते रहे हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम फिर उसी मुहाने पर आ खड़े हैं यह सोचते हुए कि हिन्दी की जगह कहां है? अंगरेजी के बाद या और भी अन्य भारतीय भाषाओं के बाद?
पिछले दिनों हैदराबाद में इंटरनेट गवर्नेस फोरम में इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति पर सवाल उठा। यह सवाल उस सर्वे के आधार पर उठा जिसमें यह पूछा गया था कि इंटरनेट यूजर किस भाषा के प्रयोग को प्राथमिकता देते हैं? जवाब आया कि 99 प्रतिशत यूजर अंग्रेजी चाहते हैं।
दो सवाल पूछे गए थे। पहला सवाल था-कौन सी वह भाषा है जिसे भारतीय सीखना चाहते हैं? और दूसरा सवाल था वह कौन सी भाषा है जिसे संपर्क के लिए इंटरनेट पर भारतीय इस्तेमाल करते हैं। दूसरा सवाल इंटरनेट पर हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं की कम उपस्थिति की गाथा बयान करता है। बात यहां से आगे बढ़ी तो प्रश्न यह भी उभरा कि इंटरनेट पर हिन्दी में स्तरीय सामग्री है ही नहीं इसलिए दोनों ही सवालों का जवाब 'अंगरेजी' है।
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भाषायी गौरव के लिए इस देश में कई विद्वानों ने लंबी लड़ाई लड़ी है और श्यामरुद्र पाठक जैसे भाषा सेनानी आज भी अपनी भाषा के लिए जेल जाना पसंद करते हैं। श्याम रुद्र जैसे प्रखर विद्वान और भाषायी क्रांतिकारी कौन है यह प्रश्न हिन्दी प्रेमियों को शोभा नहीं देता।
फिर भी संक्षेप में बता दें कि अपनी भाषा के बुनियादी अधिकार के लिए ऐतिहासिक और अभूतपूर्व लड़ाई लड़ने वाले श्यामरूद्र पाठक गलत, झूठे, मनगढंत आरोप लगा कर तिहाड़ जेल भेजे गए, वहां सामान्य अपराधियों के साथ रखकर उन्हें शारीरिक और मानसिक यंत्रणा दी गई और पिछली 24 जुलाई को उन्हें अदालत में पेश किया गया।
उनके पक्ष में भारतीय भाषा आंदोलनकारियों ने 24 जुलाई को ही चले आ रहे अखण्ड धरने में ज्ञापन दे कर तत्कालीन प्रधानमंत्री से पूछा कि भारत को अंग्रेजी का गुलाम क्यों बनाया गया है और कब तक बनाया जाएगा? क्या यह देश के स्वाभिमान, आजादी व लोकशाही का गला घोंटना नहीं है?
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बहरहाल, बहस की अनिवार्यता यह है कि हम और हिन्दी, या कहें हिन्दी और हम इस रिश्ते की गरिमा की पड़ताल का वक्त आ गया है। 14 सितंबर को हम सबको हिन्दी की ऐसी याद आती है जैसे आज अगर उसके लिए आवाज न उठाई गई तो भाषा विलुप्त हो जाएगी। श्याम रुद्र जैसे साहसी विद्वान किसी 14 सितंबर की प्रतीक्षा नहीं करते।
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विडंबना देखिए कि एक तरफ श्यामरुद्र जैसे लोग लंबे समय के बाद मीडिया का ध्यान आकर्षित कर पाते हैं, दूसरी तरफ रेडीफ डॉट कॉम के सीईओ अजीत बालाकृष्णन फरमाते हैं पिछले दस सालों के इंटरनेट यूजर के आंकड़ों को प्रमाण मानकर कहा जा सकता है कि यूजर भारतीय भाषाओं को नहीं चाहते। जबकि वहीं हॉ. गणेश देवी जैसे विद्वानों का कहना है कि आम और तमाम धारणाओं के विपरीत हिन्दी का वर्चस्व प्रशंसनीय होकर बढ़ रहा है।
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डॉ. गणेश और उनकी पत्नी सुरेखा देवी 'भाषा' नामक गैर राजनीतिक ट्रस्ट संचालित करते हैं, जो गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से सक्रिय हैं। डॉ. गणेश का प्रबल दावा है कि इस देश से 'लोक' की जुबान काटने की सुनियोजित साजिश रची जा रही है। 'भाषा' इसी के विरूद्ध एक अभियान है।
भारत की लुप्त होती भाषाओं पर व्यापक सर्वेक्षण, संवर्धन और संरक्षण तथा दस्तावेजीकरण करने का उन्होंने स्वैच्छा से बीड़ा उठाया है। इसी सर्वेक्षण के माध्यम से उनका कहना है कि हिन्दी आम धारणा को तोड़ती हुई तेजी से आगे बढ़ रही है।
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वास्तविकता यह है कि इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है यह संभव है कि अंगरेजी की तुलना में उनका प्रतिशत कम हो लेकिन इससे हिन्दी के तेजी से बढ़ते पाठकों का महत्व कम नहीं हो जाता दूसरी बात यह तथ्य अपने आप में कमजोर है कि हिन्दी में अंगरेजी के मुकाबले सामग्री नहीं है।
यह हो सकता है कि हिन्दी की वेबसाइट्स अपनी स्तरीय सामग्री को अंगरेजी की तरह चमका कर पेश नहीं कर पा रही हो लेकिन हिन्दी के पक्ष में यह बात तो कतई स्वीकार्य नहीं है कि इंटरनेट पर हिन्दी में बेहतरीन सामग्री नहीं है।
यह आलेख एक लंबी बहस की आवश्यकता रखता है। आप सभी इस बहस में शामिल हैं। बताएं कि क्या सचमुच इंटरनेट पर अंगरेजी की तुलना में हिन्दी में अच्छी सामग्री नहीं है या आप भी डॉ. गणेश देवी से सहमत हैं कि हिन्दी चारों तरफ फल-फूल रही है, आंखें खोल कर देखिए-