आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्धता से भरी आत्मकथाओं की भीड़ में अपनी आलोचना करने वाली आत्मकथाओं की बहुत कमी हिंदी में है। हिंदी के वरिष्ठ कथाकार हृदयेश की आत्मकथा 'जोखिम' इस मायने में एक ईमानदार आत्मकथा है हालाँकि इस आत्मकथा में भी बहुत जगह ढँककर बात कही गई हैं लेकिन फिर भी यहाँ ज्यादा मुखरता है अपने परिजनों और खुद अपने-आप को हृदयेश जी ने जिस बेबाकी से प्रस्तुत किया है, वह चकित करने वाला है।
अपनी हर चीज को महान सिद्ध करने की जगह यहां जो चीज जैसी है, उसे वैसा कहने का साहस दिखाई पड़ता है। अभावग्रस्त और असुविधाओं से भरा जीवन जीते रहने वाले हृदयेश संपादकों, प्रकाशकों और अभिव्यक्ति इस आत्मकथा में जगह-जगह हुई है। हृदयेश ने कहीं नाम लेकर तो कहीं बिना नाम लिए उन लोगों के बारे में लिखा है जिन्होंने उनकी उपेक्षा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
हाँ, उन्होंने लिखने के साथ-साथ साहित्य की राजनीति में भी अपने पैर पसारे होते तो वे हमेशा चर्चा में बने रहते। हृदयेश की यह आत्मकथा एक स्वाभिमानी ईमानदार व्यक्ति की आत्मकथा है। खुद टपकते नल की मरम्मत करने, छत की दरार में सीमेंट भरने, बाजार से सस्ती सब्जी या बेमेल चप्पलें खरीद लाने की तुलना में अमेरिका में बसे बेटे या शाहजहाँपुर में ही अलग रह रहे डॉक्टर बेटे से सहायता माँग लेना हृदयेश के स्वाभिमान को ठेस पहुँचा सकता है।
वे सब कुछ सहते रहते हैं लेकिन अपनी फटी झोली नहीं फैलाते, कचहरी की नौकरी में रहते हुए भी घूस-घास से खुद को बचाए रखते हैं। इस आत्मकथा में वैसे तो ज्यादातर हृदयेश जी ने अभावग्रस्त और तनावग्रस्त जीवन की ही अभिव्यक्ति हुई है लेकिन इसमें कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहाँ हृदयेश जी प्रसन्न दिखाई देते हैं। अपनी पोतियों या मित्र नारायण बाबू के साथ रहते हुए ऐसा ही होता है। सहज भाषा में लिखने वाले हृदयेश की यह किताब सीधे दिल में उतरने की सामर्थ्य रखती है। भाषा की कलाबाजियाँ लेने वाले लेखकों की भाषा में यह सामर्थ्य नहीं हुआ करता है।
पुस्तक : जोखिम (आत्मकथा) लेखक : ह्रदयेश प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन मूल्य : 395 रुपए