समाज की 4 बड़ी बुराइयां,4 युवतियां और उनकी 4 अधूरी कहानियां....'चार अधूरी बातें' युवा लेखक अभिलेख द्विवेदी का लघु उपन्यास है। अधूरी इसलिए क्योंकि अभिलेख के अनुसार पूरापन सब लिखते हैं। बिना किसी पूर्व भूमिका के उपन्यास संदली नामक किरदार से आरंभ होता है और संजीदा, संयुक्ता व संध्या की कहानियों के साथ समाप्त होता है। इन चार किरदारों की काउंसलिंग के सेशन के माध्यम से कथा आगे बढ़ती है और परत दर परत पाठक के भीतर उतरती है। महानगरों में पनपती विकृतियां धीरे धीरे उन्हें चपेट में लेती हैं और उनसे छुटकारा पाने की जद्दोजहद में वे अपना दर्द मुखरित करती हैं तो अपने ही करीबी रिश्तों को बेपर्दा करती हैं। संदली सिगरेट की लत का शिकार है,संजीदा लेस्बियन है,संयुक्ता शराब के सहारे अपने बीते कड़वे दिन भुलाने की चेष्टा कर रही है...
संध्या अपने से 15 साल बड़े शख्स से ब्याहने का दंश झेलती हुई अपनी ही बेटी से उपेक्षिता है....इन 4 किरदारों के बीच एक अहम किरदार है डॉक्टर .. जो इन सबका काउंसलर भी है, दोस्त भी और हमदर्द भी... वह इनके बहाने जीवन के दर्शन भी सहेजता है, खुद के अकेलेपन का सहारा भी तलाशता है और सबसे बड़ी बात की सहजता से समाज में पनप रहे अवसाद और विकारों को पाठक तक पहुंचाने का प्रयास करता है। इस छोटे से उपन्यास में वह सब है जिसकी पाठकीय लिहाज से जरूरत है- मोहक संवाद, कथानक का प्रवाह, स्पष्ट संदेश..
रोचक सरल शैली इसका मजबूत पक्ष है।
इसमें गुंथे विषय इतने व्यापक है कि उन्हें चंद पन्नों में समेटना चुनौती से कम नहीं। पर लेखक की इस कुशलता की प्रशंसा करनी होगी कि उनका अपने लेखन पर पूरा नियंत्रण है। वे उतनी ही बात कहते हैं जितनी समझा सकते हैं, वे उतना ही फैलाते हैं जितना समेट सकते हैं।
कह सकते हैं कि लेखन कसावट लिए है या फिर संपादन पूरी ईमानदारी से हुआ है। दोनों ही दृष्टि से बधाई उपन्यासकार अभिलेख को बनती है। अभिलेख लखनऊ के रेडियो एफएम में राइटर हैं, 2009 से निरंतर लिख रहे हैं.... संवेदनशील काव्य संग्रह 'ख़यालों का अभिलेख' के बाद यह उनका पहला उपन्यास है।
उपन्यास 'चार अधूरी बातें' में ना शब्दों के भारी अलंकरण हैं ना ज्ञान के टेढ़े मेढ़े रास्ते... एकदम सरल, स्पष्ट, सटीक, संक्षिप्त और सहज अदा में लेखक अपनी बात कहते हैं...
बावजूद इसके यहां कलात्मकता है, शायरी के रोचक अंदाज़ हैं, रोमांस का नशीलापन है, अनुभूतियों की मधुरता है, बिछोह की कसक है, फिर-फिर जी उठने की उत्कट अभिलाषा है, विकृतियों से बाहर आने की छटपटाहट है, अकेलेपन से उबरने की तीव्र उत्कंठा है....
लेखक अभिलेख महानगरीय विडंबनाओं को उकेरने में पूरी तरह से सफल रहे हैं। अभिलेख साहित्य संसार की एक नई संभावना, एक ताज़ी उम्मीद कहे जा सकते हैं। युवा पाठकों को उनका यह उपन्यास विशेष पसंद आ रहा है।