इंतजार में ‘आ’ की मात्रा : अभी बहुत कुछ बाकी है कवि नवीन रांगियाल के मन में

नवीन रांगियाल एक युवा पत्रकार, कवि, लेखक, संपादक, संगीत विज्ञ और भी बहुत कुछ हैं। आपका कविता संग्रह ’इंतज़ार में ’आ’ की मात्रा’ मेरी डेस्क पर है। कविताओं को तीन खंडों में सजाया गया है। खंड 1 'प्रेम’, खंड 2 'मृत्यु’ और अंतिम खंड 3 'दुनिया’। मुझे लगता है कि हमें इसे अंत से आरंभ की ओर पढ़ना चाहिए पहले दुनिया फिर मृत्यु और अंत में प्रेम। इसे यूं समझा जाए कि इंसान दुनिया में जन्म लेता है और अंत में उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। जन्म और मृत्यु के बीच ’प्रेम’ इंतजार में ’आ’ की मात्रा की तरह है। क्यों ना इसी प्रेम के साथ जिंदगी को जिया जाए। एक सामान्य पाठक के रूप में पुस्तक का सार मुझे यही लगा, आप चाहे तो समीक्षा समझ सकते हैं।

उनके आत्म कथ्य के अनुसार दो शब्दों के बीच रहा जा सकता है। वह रहने की जगह है। मैं पूर्णतः सहमत हूं। जब कवि जहां रवि न पहुंचे वहां जा सकता है तो भला दो शब्दों या वाक्यों के बीच क्यों नहीं रह सकता। हर कुशल वक्ता भी शब्दों तथा वाक्यों के बीच आवश्यक ‘पॉज’ को समझता है। वहां रुकता है, पल भर का विश्राम लेता है और फिर नयी ताजगी के साथ श्रोताओं का दिल लूट लेता है।

कहा जाता है कि 'अंत भला तो सब भला’। किंतु यह लोकोक्ति हमेशा सच नहीं होती। यदि पुस्तक की शुरुआती रचनाएं भली होंगी तो ही पाठक आगे के पृष्ठों की सैर करने में रुचि लेगा वरना उसे अपनी पुस्तक दीर्घा में सजा देगा। जैसा कि पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा गया है कि 'प्रेम’ नवीन की कविताओं का अर्क है। नवीन की छोटी सी कविता'शेड' में गहरे अर्थ और मनोभाव छुपे हुए हैं जो पाठक को कवि के अंतर्मन की गहराई तक लेकर जाने में सफल होती है।
'उसकी मांग में सिंदूर नहीं था
पर होठों पर लिपस्टिक लगी हुई थी
और और नाखूनों में गहरी मरून नेल पॉलिश थी
जिंदगी में
लाल और मरून रंग का इतना शेड काफी था
उससे दूर
और उसके बगैर जीने के लिए'


कविता की मात्र पहली दो पंक्तियां पाठक को अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ा देने पर विवश कर देती है। क्या वह विधवा थी, परित्यक्ता थी या साहसी विद्रोहिणी थी जो स्वयं अपने जीवन साथी को पीछे छोड़ आई थी। माथे में सिंदूर न लगाकर परंपरा को ठुकराने वाली को होठों पर लिपस्टिक लगाने से परहेज ना था। लगता है समाज के दबाव में सिंदूर से परहेज किया गया पर लाल लिपस्टिक और मरून नेल पॉलिश लगाकर समाज की और चैलेंज भी उछाला गया कि कर लो जो करना है मैं तो अपनी शर्तों पर जियूंगी। यही चैलेंज कविता की नायिका को उससे दूर रहने और उसके बगैर जीने का साथ देता है। यह आज के जमाने की नारी के व्यक्तित्व का बेबाक चित्रण है।

अगली कविता ’गलत जगह’  भी मात्र छः पंक्तियों की है। पर उसमें पहली कविता से जन्मे प्रश्न का उत्तर है।
'जो फूल उसे देने के लिए चुने थे
उन्हें देवताओं के सिर पर चढ़ा आया
कुछ मोगरे अर्थियों पर रख दिए मैंने
जिन्हें अपने जूड़े में लगाना चाहती थी वो

मैं प्रेम और मृत्‍यु में फर्क नहीं कर सका
मैंने हमेशा गलत जगहों पर फूल रखे'

पहली कविता से प्रश्न जन्मा कि नायिका ने नायक को क्यों छोड़ा। अब कारण स्पष्ट है। नायिका के फूल देवताओं को और जुड़े के फूल अर्थी पर चढ़ाने की भूल होगी तो ऐसा ही नतीजा होगा। इसी तरह की नवीनता चहुं ओर बिखरी पड़ी है नवीन की कविताओं में। ज्यादा इंतजार न करवाती हुई पुस्तक के पृष्ठ 20 पर नवीन की मुख्य कविता 'इंतज़ार में ’आ’ की मात्रा’ उपस्थित है। यही पुस्तक का शीर्षक भी है और नवीन के आत्मकथ्य का भी। 
'जो तुम्हारे लिए नहीं लिखा गया,
उसमें भी उपस्थित हो
और अदृश्य की तरह
मौजूद हो तुम
हर तरफ
दूरी में बहुत दूर जैसे
ज़िंदगी में ’न’  की बिंदी
इश्क का आधा ’श’
और इंतज़ार में ’आ’ की मात्रा की तरह।'


कवि अपने कथित 'तुम्हारे’ को अदृश्य की तरह हर और देखता है। इसमें कोई अजीब बात नहीं है, आखिर हम भी तो कण-कण में भगवान को देखते हैं।

इसे एक उदाहरण के रूप में समझिए। जब हम किसी कुएं के पास जाते हैं तो स्वाभाविक रूप से मन में उत्कंठा जागती है कि उसके भीतर झांक कर देखा जाए। हम उसमें मनचाहा देखना चाहते हैं। सूखा कचरा नहीं बल्कि जल और मछलियों के रूप में जीवन। ये दुनिया पहेलियों से भरी पढ़ी है। उनके उत्तर पाना हैं तो कहीं न कहीं झांकना पड़ेगा। इसीलिए कवि भी इंतज़ार के भीतर झांकता है और ’आ’ मात्रा को पाता है। जो उसके लिए नहीं है उसमें भी उसे उपस्थित पाता है, दुनिया में झांक कर देखिए, वहां बहुत कुछ है, प्रेम भी और मृत्यु भी।

जीवन में बहुत कुछ है। मृत्यु में क्या रखा है। इसीलिए नवीन ने खंड 'मृत्यु' की महज 8 कविताओं में समेट दिया हैं। पर ये कविताएं मन पर लुहार जैसी चोट करती हैं। पहली कविता 'अनटाइटल्ड’ दिमाग को उसी तरह से झकझोर देती है जैसे कि आकस्मिक मृत्यु। बानगी देखिए।
'जिस वक्त मैं अपने सिरहाने दो तकिये लगा कर यह
कविता लिख रहा हूं
ठीक इसी वक्त अस्पताल की मर्चुरी में पतरे की ठंडी
स्ट्रेचर पर पड़ी होगी तुम्हारी लाश।'

इसी खंड की नवीन की कविता 'मुलाकात’ में उनकी उच्चस्तरीय रचना धर्मिता की झलक मिलती है।
'जो निकले हैं उन्हें जाने दो... श्रद्धांजलि रास्ता रोक रही है... दो मिनट का विस्मय मौन उनकी यात्रा में बाधक है... मुलाकातों में अक्सर देर होती रही है, प्रेम में भी और मृत्यु में भी।'

यदि किसी पाठक को इस पुस्तक को सरसरी निगाह से देखना हो तो इस खंड की कविता ’आत्मा की रगें’ दिवंगत लोगों को लेकर एक नई सोच की और धकेलती है।
'जो मर गया, वो मर गया
उसे क्यों याद किया जाए
मरे हुए को याद करने का अर्थ है
उसकी ठंडी राख से खिलवाड़ करना
उसके काफ़ीन की कुंडी खोलना,
इसके बजाय जिंदा लोगों के मन के ताले खोले जाएं 
उनकी आत्मा की रगों पर हाथ रखे जाएं'
नवीन के हर खंड की अलग अलग समीक्षा की जा सकती है। खंड 3 में नवीन ने दुनिया के बारे में दिल से लिखा है, गहराई से लिखा है, दिल की गहराई से नवीन सोच के साथ लिखा है। विवाह की किसी संगीत निशा में आजकल गानों के फ्यूजन पर डांस की परंपरा है। फ्यूजन के रूप में नवीन की अलग अलग कविताओं के टुकड़ों, जिन्हें मैंने रेखांकित किया है, को मिलाकर इस खंड की सैर और कवि के मन की थाह ली जा सकती है।
सारी दुनिया उसकी साजिश है 
'होंठ प्रार्थना लिखते हैं
उम्र मृत्यु लिख रही है
मंदिर धूपबत्ती
मजारें इत्र - खुशबू लिख रही है।'


एक दूसरी कविता ...
अपने ही नाम... टू मी से
'दोस्तों ने हार्ट अटैक से मरकर  
कम उम्र में दिए धोखे'

'उन सारे कुत्तों के नाम 
जो बेवजह आदमी के वफादार हैं'
 
एडिटिंग से
मैं 'प्यार’ को ’प्रेम’ लिखता हूं
क्योंकि 'प्रेम’ कम जगह घेरता है

स्त्री और आग से
'पानी में रहते हुए जब गलने लगे उनके हाथ
तो उन्हें चूल्हे जलाने का काम सौंप दिया गया
इसलिए नहीं कि उनकी आत्मा को गर्माहट मिलती रहे
इसलिए यह आग से स्त्रियों की घनिष्ठता बनी रहे
और जब उन्हें फूंका जाए
तो वह आसानी से जल जाए'


खाली आंखे से
'हम सिर्फ उतना ही हंसते थे जितना गंवारा था और 
जितना उस वक्त को अच्छा लगता था'

कब्र पर अपना नाम लिखा मांगता से 
'मेरी सबसे नाजुक मांग बच्चों के लिए होती
मैं इस सूची में शामिल करता एक एक जोड़ी जूते
उन सभी बच्चों के लिए
जो अस्पतालों के पीछे सुइयां बीनते हैं नंगे पैर'
 
चक्कर से
'अपने गुस्से के लिए सबको एक गर्दन चाहिए
और प्रेम के लिए बिस्तर'

मीटर गेज की रेल से 
'रेल आते ही कोयलों की तरह झोंक दिए जाते हैं आदमी
फिर उतार दिए जाते हैं
किसी गुमनाम स्टेशन पर'


चाय और भाप से 
'वह समझते थे माचिस की तीली से आग निकलती है 
मुझे पता था उससे जान निकलती है'

नवीन की कविताओं में, शब्दों में, सोच में आग है, जो पाठकों की बस जान ही नहीं लेती। अभी तो शुरुआत है। बहुत कुछ बाकी है नवीन के मन में। वह सामने आएगा जब वे ’आ’ से आगे बढ़ेंगे।

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