गाँधीजी बोले थे : प्रवासी भारतीयों की दास्ताँ

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पुस्तक के बारे में
मॉरीशस के सुप्रसिद्ध हिन्दी कथाकार अभिमन्यु अ‍नत का यह उपन्यास उनकी बहुचर्चित कथा-कृति लाल-पसीना की अगली कड़ी है। 'लाल-पसीना' मॉरीशस की धरती पर प्रवासी भारतीयों की शोषणग्रस्त जिन्दगी के अनेकानेक अँधेरों का दर्दनाक दस्तावेज है, लेकिन इस उपन्यास में हम उसी जिंदगी और उन अँधेरों से चेतना का एक नया सूर्योदय होता हुआ देखते हैं।

पुस्तक के चुनिंदा अंश
* 'तुम लोग हड़बड़ाकर' कुछ करना चाहते हो... ऐसा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। तुम देखो, आज स्थिति बदलने लगी है... अब धीरे-धीरे कुछ इलाकों में मजदूरों को अपनी भी जमीन-जायदाद होने लगी है। तुम्हारी भी होगी। पिछले दिनों तो कुछ भारतीयों ने एक-दो छोटी कोठियाँ भी खरीद ली हैं और...'

* बड़ी-बड़ी बातें कभी सचमुच ही मदन को अच्छी लगती थीं, लेकिन कई बार उसे ऐसा भी लगा था कि बातें जब बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं तो आदमी उनके सामने बौना दिखने लगता है। उसने गाँधीजी की जिन बातों को भी सुना था, वे छोटी बातें नहीं थी लेकिन वे इतनी बड़ी बातें भी नहीं थी जिनके सामने आदमी को अपने बौनेपन का अहसास होने लग जाए। गाँधीजी की बातें एक बहुत बड़ी सच्चाई थी। एक सत्य था वह।

*सीमा ने अपने सिर को परकाश की छाती पर रखकर आँखें मूँद ली थीं। वह उसी तरह पड़ी-पड़ी सो गई थी और परकाश मीरा तथा मदन के उस रिश्ते के बारे में सोचता रहा था। सोचता रहा था कि क्या मीरा के दर्द ही की तरह एक दर्द मदन के अपने भीतर ही नहीं छिपा है? हुआ भी तो परकाश के लिए मीरा का दर्द अथाह था।

समीक्षकीय टिप्पणी
मदन, परकाश, सीता, मीरा, सीमा आदि इस उपन्यास के ऐसे पात्र हैं, जिनके विचार, संकल्प, श्रम, त्याग और प्रेम संबंध उच्च मानवीय आदर्शों की स्थापना करते हैं और जो किसी भी संक्रमणशील जाति के प्रेरणास्रोत हो सकते हैं। आज से सत्तर-अस्सी साल पहले के मॉरीशसीय समाज में भारतीयों की जो स्थिति थी उसे उसकी समग्रता में इस उपन्यास में हम महसूस कर सकते हैं।

उपन्यास : गाँधीजी बोले थे
लेखक : अभिमन्यु अनत
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 242
मू्ल्य : 250 रुपए

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