हिन्दी दिवस पर कविता : मैं हिन्दी केवल एक मां हूं तुम सबकी जां हूं ...

कर दिया हाशिए पर मुझे 
यूं मुझे लोगों ने भुला दिया
ऊपरी चमक दमक पर फिदा हुए
मेरे अपनत्व को भी झुठला दिया?
उसके भड़कते परिधान पर रीझे
उसकी मोहिनी मुस्कान तुम्हें भा गई
उसकी बातों की मिसरी में खो गए
मेरी मीठी सच्ची बोली कहां गई..?
उसकी जुल्फों के साए में खो गए
उसके नैनों की चितवन तुम्हें भा गई
अरे भले मानुष !अपने ही घर में कैसे
 
दूसरी आकर पूरी तरह छा गई..?
उसकी ज़ुबान उसकी तहज़ीब उसकी संस्कृति 
उसका ही सब कुछ क्यों हमने अपना लिया
हमारी अपनी थी जो सीधी सादी सच्ची थी जो
उस प्यारी सी बानी को क्यों कर बिसरा दिया?
क्या अब भी तूने मुझको नही पहचाना
पड़ा है अब भी तेरी आंखों में काला बाना
ह्रदय को होती है कितनी गहरी पीड़ा 
जब पूछते हो तुम कौन हूं तुम्हारी मैं ?
क्यों रहना चाहती हूं यहां ही मैं 
क्यों करती हूं प्यार तुम्हें मैं इतना
अपने ही जाये को मां कैसे दे परिचय अपना 
अपने ही बच्चों को कैसे बताए नाम अपना ?
हिन्दी हूं मैं मातृ भाषा तुम्हारी
तुम्हारा ही जीवन हूं आशा तुम्हारी
राष्ट्र की हूं भाषा राष्ट्र की पहचान
राष्ट्र की आन बान और शान .
राष्ट्र का हूं गुरूर राष्ट्र की संस्कृति
मेरे नाम पर बनी कितनी महान कृति
निराला,पंत,महादेवी,प्रसाद ने की सेवा मेरी
कहां है मातृ प्रेम तेरा कहां है मातृ भक्ति तेरी ?
गीता हूं मैं गंगा हूं मैं गर्विता हूं मैं 
इस पावन सलिला की पुनीत वसुंधरा मैं 
कश्मीर से कन्याकुमारी तक बंग से कच्छ तक 
गूंजने वाली ध्वनि हूं मैं लय हूं मैं .
मैं हूं भाषा, मातृभाषा,राष्ट्र की भाषा 
सरल देवनागरी लिपि उन्नत व्याकरण मेरा
वैज्ञानिक हैं शब्द मेरे वृहत् मेरा शब्दकोश
भारत की पहचान का सशक्त माध्यम हूं मैं .
१४ सितंबर एक दिवस की मोहताज नहीं हूं मैं 
तुम्हारी धरती से उपजी पूरी ज़िंदगी हूं मैं
भाषा,व्याकरण,वाणी ही नहीं स्वामिनी हूं मैं 
मैं हिन्दी केवल एक मां हूं तुम सबकी जां हूं ...

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