अनिल शर्मा
संपादन और आलोचना के एक युग, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय का जाना हिंदी साहित्य से एक आश्वस्ति का जाना है। गीता के छठे अध्याय का ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थो विजितेन्द्रिय, युक्त इतुच्यते योगी, समललोष्ठमकांचन:, श्लोक पढ़ते हुए और सुनते हुए ज्ञान-विज्ञान तृप्त आत्मा का एक विज्युल जो उभरता था, वो उनका था।
स्थितप्रज्ञ मनुष्य का ध्यान करते हुए हमेशा प्रभाकर श्रेत्रिय हमेशा ध्यान में आए हैं। उनके दिल्ली में आने के बाद मुझे उनका निंरतर स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहा। ज्ञान, मर्यादा, विनम्रता और भाषा और साहित्य के प्रति समर्पण, उन्हें एक ऐसा व्यक्तित्व देता था, कि सदा जोड़-तोड़ और राजनीतिक संतुलन साध रहे उनके समकालीन कैरिकेचर लगते रहे। भोपाल, कलकत्ता, दिल्ली की उनकी यात्रा हिंदी के मठों के संकीर्ण होती दृष्टि और उनके अनासक्त, तपस्वी साहित्यिक जीवन की नित्य विराट होते कद की कहानी है।
भारतीय वाडंगमय के अध्येता के रूप में वे एक शिखर थे, जिसमें से कालीदास, तुलसी, कबीर रूपी नदियों की मीमांसा सदा उससे निकलती रहती थी। अक्षरा, पूर्वग्रह, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादक के रूप में उन्होंने वर्तमान युग के महावीर प्रसाद द्विवेदी का कार्य किया। अमर्त्य सेन के आर्थिक दर्शन पर लिखा वागर्थ का उनका संपादकीय, उनके ज्ञान की विशालता और गहराई का परिचय देता है।
ज्ञानपीठ पर प्रकाशित महाभारत के लोकार्पण कार्यक्रम में पुस्तक पर समीक्षा के लिए मेरा चयन, भोपाल में लघु पत्रिका के संपादकों के सम्मेलन में बुलाना, मेरे लिखे हुए पर निंरतर मार्गदर्शन, उन्होंने मुझे जो सम्मान-प्यार दिया, वह मुझे याद रहता है। मेरे लेखन पर उनका मार्गदर्शन और निरंतर प्रोत्साहन, मेरे साहित्यिक जीवन की बड़ी धरोहर है। कितनी यादें, कितनी बातें, कितने ही साहित्यिक प्रसंग... हिन्दी साहित्य और मेरे जीवन में बड़ा साहित्यिक शून्य उभर आया है। ऐसे विराट व्यक्तित्व को शब्दों से कैसे श्रद्धांजलि दूं - मेरा नमन... श्रृद्धांजलि।