स्वर्णिम वर्तमान किसी का हो पर स्वर्णिम इतिहास सबका नहीं होता। रमाकांत पाण्डेय वर्तमान लेखकों में ऐसे लेखक हैं जिनके पास न तो धन है, न कोई जान पहचान है और न ही शरीर चलने योग्य है। ऐसी स्थिति में इनके द्वारा लिखी गयी अनेक साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित नहीं हो सकी हैं। हालांकि इनके लेख आज कल के साहित्यकारों के द्वारा लिखे गए साहित्य से कहीं अलग और विशिष्ट पहचान लिए हैं।
आज साहित्यकारों का जमावड़ा है। साहित्य धन और नाम कमाने का हथकंडा बनाया जा रहा है। पाठकों को क्या परोसा जाए क्या नहीं इस बारे में शायद ही कुछ साहित्यकार सोचते हों। यह अटल सत्य तो सब जानते हैं साहित्य न सिर्फ भाषा का विकास करता है वरन समाज की दिशा व दसा दोनो को निर्धारित करता है। ऐसे में लेखन करने वालों का दायित्व बहुत बड़ा हो जाता है। साहित्य से दर्शन, सैद्धान्तिकता और यथार्थता आदि सब तो गायब होता जा रहा है। ऐसी दशा में शोधात्मकता और सार्थक उद्देश्यों वाली मनोवैज्ञानिकता की बात भी खुली बेईमानी ही कही जा सकती है।
रमाकांत पाण्डेय 'अकेले' इसी साहित्यिक विकारों के बीच वास्तविक साहित्य को पुनः जीवित करते नजर आ रहे हैं। आज कल तो नाम कमाने के चक्कर में साहित्य जगत के पाठकों को विचित्र साहित्य सुनिश्चित ढंग से पढ़ाया जा रहा है। कुछ बड़े पदों पर तैनात लोगों ने अपने पद को हथियार बनाकर खुद को घोषित रूप से साहित्यकार के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किया है। ऐसे समूह द्वारा अजीबो गरीब रचनाएं पाठकों पर थोप दी गयीं। नतीजन साहित्य जगत में बहुत बड़ा बदलाव आता चला जा रहा है किन्तु कुछ साधक निराला की तरह निस्वार्थ साहित्य साधना में जुटे हैं।
इन साधकों की वजह से हिंदी साहित्य को अमूल्य रचनाएं मिल रही हैं। ऐसे ही साहित्य साधना के पथिक के रूप में रमाकांत पाण्डेय 'अकेले' को गर्व के साथ रखना एकदम तर्कसंगत बात होगी। इनका समूचा साहित्य दर्शन और यथार्थता पर आधारित है। इनके बारे में कई बार विभिन्न प्रतिष्ठित अखबारों के माध्यम से पढ़ने को मिलता रहा है। वैसे अनेक भारतीय राजा साहित्यकारों की लेखनी से अछूते रहे उन राजाओं पर रमाकान्त पाण्डेय 'अकेले' ने विस्तृत प्रकाश डाला है।
हिंदी साहित्य को इस लेखक ने बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धियां अपनी लेखनी से दे डाली हैं। यूं तो 'अकेले' को पुरस्कृत करने हेतु कई बार प्रयास हुआ पर उन्हें पुरस्कार से नहीं साहित्य साधना से मतलब रहा। हर बार पुरस्कार और नाम कमाने के अवसरों को 'अकेले' ने ठोकर मार दी। कई बार प्रतिष्ठित अखबारों में इस साहित्यकार का उल्लेख पढ़ने को मिलता रहा। 'अकेले' की सबसे बड़ी खूबी है वह न तो किसी से जान पहचान बनाकर अपनी रचनाएं प्रकाशित कराना चाहते हैं और समस्या यह है कि उनके खुद के पास भी इतना अधिक धन नहीं है। अब ऐसे में उनकी अमूल्य पांडुलिपियां हिंदी की प्रकाशित पुस्तकों की श्रेणी में आने की प्रतीक्षा कर रही हैं।
यह एक साहित्य जगत की बड़ी विडम्बना भी है कि ऐसी पुस्तकें धनाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो पा रहीं। इस लेखक ने साहित्य सेवा के लिए घोर तपस्या की है।
रमाकान्त पाण्डेय अकेले का जन्म 9 अप्रैल 1931 को कानपुर जिले के सखरेज नामक गाँव में हुआ। इनकी माता का नाम कुसुमा और पिता का नाम जगन्नाथ था। छोटी उम्र में ही किन्ही कारणों से यह कानपुर के मंन्धना में आकर रहना पड़ा। यहीं उर्दू व हिंदी की वर्नाक्यूलर परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1942 ई. के आंदोलन से पीड़ित होकर सीतापुर जिले के ब्रम्हावली गाँव में आकर रहने लगे। ब्रम्हावली में लेखक 'अकेले' की ससुराल और ननिहाल भी है। कुछ समय बाद अकेले ने हिन्दोस्तान टीचर परीक्षा उत्तीर्ण की। इनके सामने अर्थ की समस्या मुह बाए खड़ी थी। इन्होंने दिन में साइकल बनाना शुरू कर दिया और फिर भी काम न चला तो रात रात सिलाई का काम करने लगे। जो कुछ धन मिलता उससे घर चलाते और जो कुछ धन मिलता उससे घर चलाते और खुद के भोजन पानी से भी बचत निकालने की सोंचते रहते। जैसे ही थोडा सा धन इकठ्ठा कर पाते लेखन हेतु दवात और कलम आदि सहायक सामग्री खरीद लाते। स्वाभिमान ऐसा कि किसी के सामने हाथ फैलाना गवारा न था। जब कभी दुबारा धन इकठ्ठा कर पाते तो लेखन को यथार्थता से जोड़ने यात्रा पर निकल पड़ते। यथास्थान पहुंचकर वातावरण का अध्ययन व अवलोकन करते। कुछ समय बाद इन्होंने बीस रुपए के मासिक वेतन पर अध्यापक की नौकरी कर ली। यह पांच सौ चालीस रुपए के वेतन पर सेवानिवृत्त हो गए।
इन्होंने गत चालीस वर्षों के दौरान हाईस्कूल, इंटरमीडिएड और स्नातक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। साहित्य साधक 'अकेले' जीवन के संघर्षों और थपेड़ों से जूझते रहे। कई लोग इनके पास शिक्षा ग्रहण करने और उर्दू सीखने आते रहते हैं पर बदले में कभी कोई शुल्क आज तक इन्हें कोई देने में सफल न हो सका। अकेले ने अर्थ की भीषण तंगी के बावजूद भी कभी किसी का कोई प्रलोभन स्वीकार नहीं किया कारण था कि यह लेखक इसे साधना में बाधक मानते रहे हैं। साहित्य लेखन के संघर्ष और तपस्या को अकेले जैसा साहित्यकार ही समझ सकता है। वर्तमान में लेखकों को साहित्य लेखन का नशा तो चढ़ा है लेकिन वह अपने समाज के प्रति उत्तरदायित्वों को ही भूल बैठे। साहित्य से पड़ने वाले प्रभावों का कोई अध्ययन किए बिना साहित्य गढ़ डाले गए। ऐसी भीड़ में भी अकेले ने साहित्य लेखन में अपने दायित्वों का निर्वहन बखूबी किया है ठीक एक आदर्श साहित्यकार की भाँति। अकेले की दृष्टि अब कमजोर हो चुकी है।
वृद्धा अवस्था का पडाव है फिर भी लेखन कार्य प्रतिदिन का नियम है। निस्वार्थ लेखन और लेखक की अर्थ दशा को देखकर बार बार निराला जी की याद बरबस ही आ जाती है। इस लेखक ने चालीस पौराणिक कथाएं, चार पौराणिक उपन्यास आदि बहुत सी रचनाएं की हैं। रमाकान्त पाण्डेय अकेले के अब तक सोलह उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से अधिकाँश साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुए हैं। इन्होंने वीरगाथा काल, गुप्तकाल, शुंग एवं मौर्य काल, स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियाँ, आंचलिक और ऐतिहासिक ढेर सारी कहानियां भी लिखी हैं। रमाकान्त पाण्डेय अकेले को देखकर बरबस लोग चौक पड़ते हैं और वह सोंचते हैं इतना बड़ा लेखक और इतने सामान्य और सादगी पूर्ण जीवन में रहना पसन्द करता है। बड़ी बात तो यह है कि पच्चासी वर्ष की अवस्था में भी विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन और नवीन लेखन आज भी गंगा की धार की तरह जारी है जो साहित्य की नवीन उपज की कारक है।