ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार विष्णु सखाराम खांडेकर के बारे में खास बातें
मराठी साहित्यकार 'विष्णु सखाराम खांडेकर को 1974 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था।
उन्होंने उपन्यासों और कहानियों के अलावा नाटक, निबंध और आलोचनात्मक निंबंध भी लिखे। खांडेकर के ललित निबंध उनकी भाषा शैली के कारण काफी पसंद किए जाते हैं।
खांडेकर महाराष्ट्र के सांगली में 19 जनवरी 1898 को पैदा हुए। स्कूल के दिनों में खांडेकर को नाटकों में काफी रूचि थी और उन्होंने कई नाटकों में अभिनय भी किया। बाद में उन्होंने अध्यापन को अपना पेशा बनाया और वह शिरोड कस्बे में स्कूल शिक्षक बने।
उन्होंने 1938 तक इस स्कूल में अध्यापन कार्य किया। शिरोड प्रवास खांडेकर के साहित्य रचनाकर्म के लिए काफी उर्वर साबित हुआ क्योंकि इस दौरान उन्होंने काफी रचनाएं लिखीं। 1941 में उन्हें वार्षिक मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया।
खांडेकर ने ययाति सहित 16 उपन्यास लिखे। इनमें हृदयाची हाक, कांचनमृग, उल्का, पहिले प्रेम, अमृतवेल, अश्रु, सोनेरी स्वप्ने भंगलेली शामिल हैं। उनकी कृतियों के आधार पर मराठी में छाया, ज्वाला, देवता, अमृत, धर्मपत्नी और परदेशी फिल्में बनीं। इनमें ज्वाला, अमृत और धर्मपत्नी नाम से हिन्दी में भी फिल्में बनाई गईं। उन्होंने मराठी फिल्म लग्न पहावे करून की पटकथा और संवाद भी लिखे थे।
उन्हें मराठी के तमाम पुरस्कारों के अलावा साहित्य अकादमी और भारतीय साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया। सरकार ने उनके सम्मान में 1998 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था। मराठी के इस चर्चित रचनाकार का निधन 2 सितंबर 1976 को हुआ।
1920 में, खांडेकर ने महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के वर्तमान सिंधुदुर्ग जिले में एक छोटे शहर, शिरोड में एक स्कूल शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया।
उन्होंने 1938 तक उस स्कूल में काम किया। एक शिक्षक के रूप में काम करते हुए, खांडेकर ने अपने खाली समय में प्रचुर मात्रा में मराठी साहित्य को विभिन्न रूपों में पेश किया। अपने जीवनकाल में, उन्होंने सोलह उपन्यास, छह नाटक, लगभग 250 लघु कथाएँ, 50 रूपक कथाएं, 100 निबंध और 200 आलोचना लिखी थी।
विष्णु सखाराम खांडेकर के लेखों और कविताओं का प्रकाशन 1919 से शुरू हुआ। अपनी उन्हीं दिनों की एक व्यंग्य रचना के कारण उन्हें मानहानि के अभियोग में फंसना पड़ा, पर उससे सारे कोंकण प्रदेश में वह अचानक प्रसिद्ध हो गए। पुणे में उन्हें प्रमुख कवि नाटककार रामगणेश गडकरी के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। गडकरी और कोल्हटकर के अतिरिक्त, जिन अन्य मराठी लेखकों का विशेष प्रभाव खांडेकर पर पड़ा, वे थे- गोपाल गणेश अगरकर, केशवसुत और हरि नारायण आप्टे।
शिरोद में बिताए गए 18 वर्ष खांडेकर के लिए निर्णायक सिद्ध हुए। लोगों की गरीबी और अज्ञान का बोध उन्हें वहीं हुआ। वहीं गांधी जी की विचारधारा की उन पर अमिट छाप पड़ी, जब एक के बाद एक उनके कई मित्र और सहयोगी 'सत्याग्रह आंदोलन' में पकड़े गए। खांडेकर कला और जीवन के बीच घनिष्ठ संबंध मानते थे। उनकी दृष्टि में कला एक सशक्त माध्यम है, जिसके द्वारा लेखक पूरे मानव-समाज की सेवा कर सकता है।
विष्णु सखाराम खांडेकर ने साहित्य की विभिन्न विधाओं का कुशल प्रयोग किया। उनकी लगन का ही फल था कि आधुनिक मराठी लघुकथा एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई और वैयक्तिक निबंध को प्रोत्साहन मिला। 'रूपक-कथा' नामक एक नए कहानी रूप को भी उन्होंने विकसित किया, जो मात्र प्रतीक कथा या दृष्टांत कथा न होकर और भी बहुत कुछ होती है। अक्सर वह गद्यात्मक कविता जैसी जान पड़ती है। 1959 में, अर्थात खांडेकर के 61वें वर्ष में प्रकाशित 'ययाति मराठी उपन्यास साहित्य में एक नई प्रवृत्ति' का प्रतीक बना। स्पष्ट था कि जीवन के तीसरे पहर में भी उनमें नवसृजन की अद्भुत क्षमता थी।
1941 में, खांडेकर को सोलापुर में वार्षिक मराठी साहित्य सम्मेलन (मराठी साहित्यिक सम्मेलन) के अध्यक्ष के रूप में चुना गया था। 1968 में, भारत सरकार ने उन्हें साहित्यिक उपलब्धियों के सम्मान में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। दो साल बाद, उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी के साहित्य अकादमी फैलोशिप से भी सम्मानित किया गया। 1974 में उनके उपन्यास ययाति के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। शिवाजी विश्वविद्यालय,कोल्हापुर,महाराष्ट्र ने उन्हें डीलिट की मानद उपाधि प्रदान की। 1998 में, भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया।