फिल्म मेला (1950) में संगीतकार नौशाद ने ग्रामीण जनता से अपनी धुनें ली थीं। बदले में ग्रामीणों ने नौशाद की धुनों से अपने घर-आँगन को सजाया था।
आज जब नौशाद साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो क्या हुआ। उनके गीत, उनकी याद अमर है। उनका हिन्दुस्तान हमेशा याद रहेगा, जो उन्होंने अपने गीतों में रचा। वे गाँव, वे पनघट, वे खेत-खलिहान, वो बोनी-कटनी और वो होली-बरसात याद आएँगे, जो उनके गीतों में बोलते रहे हैं। पूछा जाए तो वे हमारे फिल्म-संगीत के मुंशी प्रेमचंद थे।
मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे गाँव की महिलाएँ ढोलक पर जो धुनें गाती थीं, उनमें काफी धुनें नौशाद साहब की होती थीं। अब यह तय करना मुश्किल है कि विनम्र और हिन्दुस्तान को जी-जान से प्यार करने वाले नौशाद ने देश की ग्रामीण जनता से अपनी धुनें ली थीं या देश की ग्रामीण जनता ने नौशाद की धुनों से अपने घर-आँगन को सँवारा था।
एक जमाना था। देश में 'मेला' फिल्म रिलीज हुई थी। तब दिलीप कुमार नाजुक-मासूम नौजवान थे। परदे पर उनका तरसना, तड़पना, दुःख भोगना और अपनी माशूक से महरूम होकर मर जाना अच्छा लगता था। उनके जैसा भावपूर्ण चेहरा, दर्द भरी आँखें और बोलता हुआ शरीर आज तक न आ सका। एक बेजार, शिकस्ता प्रेमी को, जिसकी किस्मत में माज़ी की यादों के सिवा कुछ नहीं है और जिसके लिए वर्तमान घुट-घुटकर मरना बन चुका है, दिलीप कुमार ने अमर कर दिया था, इस टाइप को, यहाँ तक कि जिस्मो-सूरत के इस टाइप को, कुदरत ने रचा था और वह करिश्मा फिर कभी नहीं हुआ।
यहीं 'कवले-कवले' (कोमल-कोमल) दिलीप परदे पर गाते हुए आए थे- 'गाए जा गीत मिलन के... सजन घर जाना है। 'मेला' एक दर्द-कथा थी। नरगिस अंत में मर जाती है और दिलीप के लिए दुनिया से उजाला उठ जाता है। उस वेदना को पचा जाना दर्शक के लिए मुश्किल था, और 'मेला' दिलीप के कारण अमर हो गई। इस गीत पर टिप्पणी लिखने की वजह यह है कि नौशाद और मुकेश का यह नगमा उस दौर की खास याद है। इस गाने से आप सन् 50 के हिन्दुस्तान में प्रवेश करते हैं। कितनी सरल और सीधी-सादी धुन बनाई थी। ढोल की थाप पर कैसे इस गीत को बहाया था। मुकेश ने इसे कितनी सादगी से गाया था। लीजिए, शकील साहब के बोल पढ़िए। मुकेश की भोली स्वर लहरियों में -
गाए जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के, सजन घर जाना है... काहे छलके नयनों की गगरी, काहे बरसे जल, तुम बिन सूनी साजन की नगरी, परदेसिया घर चल, प्यासे हैं दीप नयन के, तेरे दर्शन के, सजन घर जाना है.... लुट न जाए जीवन का डेरा, मुझको है ये गम, हम अकेले, ये जग लुटेरा, बिछड़ें न मिलके हम, बिगड़े नसीब न बन के, ये दिन जीवन के...
(नोट कीजिए, ऊपर का यह अंतरा खुद कथा के ट्रैजिक मिजाज की तरफ इशारा कर देता है। यह सिनेमा की व्याकरण है। गीत तब थीम से जुड़े होते थे और कथा सार की तरफ जाते थे।)
सजन घर जाना है... डोले नयना प्रीतम के हारे, मिलने की यह धुन, बालम तेरा तुझको पुकारे, याद आने वाले सुन, साथी मिलेंगे बचपन के, खिलेंगे फूल मन के, सजन घर जाना है...
'मेला' की कथा भी नौशाद साहब की कलम से उतरी थी। वाकया सच्चा था। लखनऊ के किसी गाँव में मेला लगता था। नौशाद साहब ने उसे बचपन से देखा था। बाद में वे सिनेमा में चले आए। वर्षों बाद लखनऊ वापस गए तो देखा वह मेला नदारद हो चुका था। बस एक फकीर उसकी दास्तान बताने को बाकी था।
यही 'मेला' की आधारभूत कथा बना। आप परदे पर जिस युवा दिलीप को देखते हैं -गीत गाते हुए और सजन के घर जाते हुए। वह कोई और नहीं वास्तविक कथा में युवा नौशाद ही हैं, जिन्हें अपने अंचल के मेले का बंद हो जाना तोड़ गया था और वे फिल्म में फकीर से गवा बैठे थे- 'ये जिंदगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे।'