एक खूबसूरत कविता आपके दरपेश है। इसे आनंद बक्षी ने लिखा था। उन्होंने वाकई स्तरीय काव्य दिया है। 'जब भी जिक्र होता है कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है' जैसा स्वर्णहार उन्हीं का गढ़ा हुआ है। यह शायद उनकी शब्द-रचना की ताकत थी कि एक दिन रास्ता रोककर मेरे एक बीस साल पुराने छात्र ने सड़क पर सुबह-सुबह एक गीत सुनाया और बोला- 'गुरुदेव, अपने लिए तो यह भजन है।' मैं उसके भावपूर्ण गायन से, और एक अंतरे के खूबसूरत बोलों से ऐसा चौंका कि वहीं तय कर लिया, इस गीत पर जरूर लिखूँगा।
अब मुकेश साहब का जिक्र भी कर लें। प्रस्तुत गीत को उन्होंने ही गाया है। अकसर उन्हें बेसुरा बताकर कभी-कभी हेठा जताया जाता है। पर मुकेश एक आधिकारिक स्वतंत्र सत्ता हैं। उनके बगैर बहुत-से गाने, बहुत-सी सिचुएशन और बहुत-से किरदार फीके रह जाते। राजकपूर का फिल्मी पात्र मुकेश के बिना अचिंत्य है।
सीधे-सादे युवा प्रेमी के लिए, जो कथा में ठुकरा दिया गया है, ठग लिया गया है और अपनी मोहब्बत को खो बैठा है, मुकेश ही, तलत के समानांतर, सही चुनाव थे। उनकी आवाज में जो गरिमा थी, गहनता थी, ठहराव था, और उनकी प्रस्तुति में 'शरीफ इंसान' की जो टीसभरी वेदना थी, वह आम आदमी के दिल में उतर जाती है और उसे उदासी के कोहरे में लपेट लेती है।
कभी-कभी पलटकर मुकेश जो सहज मुरकी लेते थे, जैसी कि 'आ लौट के आजा मेरे मीत', और 'नैया पड़ी मझधार' (प्राइवेट) में एक जगह पर है, वह स्पष्ट करता है कि गाते वक्त मुकेश गीत की आत्मा में विलीन हो जाते थे और अर्थ से उत्पन्ना वेदना उनके दिल और आवाज का इस्तेमाल कर जाती थी।
सहगल के बाद शायद पहला और आखिरी पाक स्वर, सहज गायन हमें दिल्ली के मुकेशचंद्र माथुर में मिलता है। यह भी कि घास-फूस की छत से कमरे में टप-टप पानी टपके तो आप टपकने की व्याकरण देखेंगे या इस पीड़ा पर गौर करेंगे कि बरसात में किसी गरीब का मकान चू रहा है? मुकेश के बेसुरेपन के खिलाफ उनके प्रभावशाली वेदना-गायन का पलड़ा यहाँ भारी हो जाता है।
फिल्म 'फूल बने अंगारे' (सन् 1970) के इस गीत में धुन और संगीत कल्याणजी-आनंदजी का है। उन्होंने अंतरों की धुन बेहद मधुर और मौलिक बनाई है। उस हिस्से के कारण बक्षीजी की मनमोहक शायरी हंस के पंख लगा लेती है।
मुकेश की गंभीर, दानेदार और निर्मल आवाज वीराने में, झुलसे फूलों की लड़ी, खड़ी करती जाती है, जबकि गीत का अर्थ और धुन हर्ष की माँग करते हैं। यानी इस 'अदरवाइज रोमांटिक' गीत में मुकेश की टीसभरी गायिकी प्रफुल्लता के बजाय उदासी का माहौल गढ़ती है। ...और ऐसा इसलिए कि अलभ्य और अनुपम सौंदर्य (किसी नारी का) तटस्थीभूत प्रेमी में खुशी के बजाय सहर्ष स्वीकारी हुई वेदना को ही सघन करता है। लीजिए, पढ़िए बक्षीजी की काबिले तारीफ सुखनवरी-
चाँद आहें भरेगा, फूल दिल थाम लेंगे हुस्न की बात चली तो, सब तेरा नाम लेंगे चाँद आहें भरेगा... ऐसा चेहरा है तेरा, जैसे रोशन सबेरा जिस जगह तू नहीं है, उस जगह है अंधेरा, कैसे फिर चैन तुझ बिन, तेरे बदनाम लेंगे हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे चाँद आहें भरेगा... आँखें नाजुक-सी कलियाँ, बातें मिसरी की डलियाँ होंठ गंगा के साहिल, जुल्फें जन्नात की गलियाँ (देख रहे हैं न, ऊपर की दो पंक्तियों की कविता सचमुच काव्य बन जाती है! बताइए, क्या यह सिनेमा-गीत है?) तेरी खातिर फरिश्ते भी सर पे इल्जाम लेंगे हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे चाँद आहें भरेगा... चुप न होगी हवा भी, कुछ कहेगी घटा भी और मुमकिन है तेरा जिक्र कर दे खुदा भी फिर तो पत्थर ही शायद जब्त से काम लेंगे (वाह! वाह निकल पड़ती है मुँह से। फिर से देखिए ऊपर के दोनों अंतरे और तय करें कि क्या ये आनंद बक्षी ही हैं?) हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे, चाँद आहें भरेगा...
कहने की जरूरत नहीं कि इस श्रृंगार-गीत में सर्वप्रथम काव्य ही चढ़-बढ़कर है। वही अच्छी धुन और भावप्रधान गायन का सोना अपने आप ले आता है। ऐसे गीतों और उनके दौर को भूला नहीं जा सकता, क्योंकि अब ये भारतीय हिन्दी सिनेमा की थाती हैं। ये हमें गुजरे हिन्दुस्तान से जोड़े रखते हैं।
इस बात पर भी गौर करें कि पाँचवें-छठे दशक का वक्त अगर इतनी अविस्मरणीय धुनें और 'इन्सपायर्ड' गायिकी दे सका, तो इसका कारण आला दर्जे की शायरी की शर्तिया मौजूदगी थी। अब वो आलम कहाँ। नाम और पैसे की जल्दबाज हवस ने कविता, संगीत और आदमी की हत्या कर दी।