मेरी जान तुम पे सदके

- सुबोध होलकर
 
कहीं जाने की तैयारी में था, जल्दबाजी थी कि यकायक एक गाना जेहन में उभरा- दिलो-जां से होता हुआ वुजूद में छा गया... मैंने जाने किसके इशारे से जेब से अपना अलादीन का चराग निकाला। यू ट्यूब चूंकि ज्यादा डेटा खा जाता है, सो गाना डॉट.कॉम पर उभरा... लेकिन ये क्या!! कभी ऐसा हुआ के दिल ने जो चाहा ठीक वैसा ही हुआ हो? क्या कभी वैसा भी होता है? तो क्या हम वैसी उम्मीद करना छोड़ दें? हुआ यों कि दिल में आशा गा रही थी और गाना डॉट.कॉम ने सुना दिया महेन्द्र कपूर! फिर से ढूंढा-ढांढी की, मिला।
 
आशा की आवाज के रहस्य जिस माइक्रो अंदाज के पोरों से खोले हैं ओपी नैयर ने, और उन जादूभरे रहस्यों की सीढ़ियों से संगीत और संगीत की की गहराइयों और ऊंचाइयों से मुझे रूबरू कराया है, अन्य भी होंगे ही- 
 
मेरी जान तुझपे सदके, एहसान इतना कर दो
मेरी जिंदगी में अपनी चाहत का रंग भर दो।
 
मेरी हर खुशी अधूरी मेरा हर सिंगार फीका
बिना प्यार के ना भाए मुझे चांद का टीका
 
मुझे प्यार से सजाके, एहसान इतना कर दो
 
एसएच बिहारी को सलाम! ये गाना जब भी मैं सुनता हूं, कान से नहीं सुनता। सुनाई देता है तो रगों में सितार बजने लगता है, कि जैसे कोई है जिसने तर्जनी में अपनी मिजराद का गहना पहन रखा है। जाने कहां से चलाता है उंगलियां अपनी, कि मैं होता जाता हूं झंकृत...। रगों में खून नहीं संगीत बहता है! धड़कन किसी का कुछ कहा-सुना होके रह जाती है। सांस की आवाजाही की लय पर मंथर थिरकती और मचलता है जहान मेरा। 
मैं आपसे सच कहूं तो कुछेक ऐसे एहसासात हैं, होते हैं कि हम जिन्हें लाख मरके भी कभी बयां नहीं कर पाते। वो निहायत निजी, नितांत अपने अंतरतम में उभरते और दफन होते रहते हैं। कई बार तो होता है के बयां कर देने के उठापटक में हम उनका सतरंगा लुत्फ खो देते हैं।
 
एक गड़बड़ हमेशा में भी होती है के गीतकार, गायक और संगीतकार का ही नाम उजागर किया जाता है। तिस पर भी गाने वाले को ही ज्यादा प्रसिद्धि मिलती है और श्रोता उसी को गाने का सारा श्रेय भी दे बैठते हैं। लेकिन संगीतकार का भी बड़ा योगदान होता है। और डूबकी लगाकर देखें तो साजिंदों का भी। ओपी नैयर ने, मैं जानता नहीं हूं कि किस महान सितारनवाज से सितार बजवाया है। उस विलक्षण व्यक्ति ने महज कुछ सेकंड बजाकर साबित कर दिया है कि सितार क्या कर सकता है, क्या रच सकता है। मेरी तो हस्ती को हिलाकर रख दिया है।
 
मैं गाना सुनता रहा, सुनता रहा, अभी भी सुन रहा हूं। बज नहीं रहा है। सारे काम और धाम, और राम मुल्तवी कर दिए हैं।
 
सावन की घटा (1966) का गाना बज रहा है। मैं अपने इश्क के हरे-भरे-घने दरख्त के साए तले बैठा देख रहा हूं कि कैसे इस गीत ने मेरे इश्क के रोपे को अपनी संगीतांजुरि से सींचा था।
 
इश्क का और गीत-संगीत का अधिक करीब‍ रिश्ता है। इश्क रचा-बसा होता है इसी में। गानों से चस्पा हो जाती हैं यादें। फिर यादें बजती हैं, फिर बस, दुनिया जहान को ठेंगे पर रखकर बैठे हो तसव्वुरे जाना किए हुए। जैसे मैं बैठा हूं। 
 
और एक बात पते की और- इश्क जब परिपक्व हो जाता है तो व्यक्तिनिष्ठ नहीं रह जाता है, फैलकर सार्वभौमिक हो जाता है। तभी हम ये भी जान पाते हैं कि क्यों और कैसे किसी ऋषि ने कहा था 'वसुधैव कुटुम्बकम''।  
 

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