किसी ने 'खंडवा' के सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामनारायण उपाध्याय से पूछा था कि पुराने किले और खंडहर क्यों अच्छे लगते हैं? उन्होंने जवाब दिया- 'इसलिए कि वे पुरानी यादों को जगाते हैं। इन यादों के बिना वर्तमान का अस्तित्व नहीं होगा, क्योंकि वर्तमान भी तो याद ही है। उनकी यह व्याख्या पल भर को मुझे चौंका गई। ऐसा लगा, याद ही अस्तित्व है। तभी पड़ोस के रेडियो पर यह गाना आया- 'चली गोरी पी से मिलन को चली...' और मैं पांचवें दशक में लौट गया।
बी.आर. चोपड़ा की सुधारवादी, सामाजिक फिल्म थी 'एक ही रास्ता।' उसने सिल्वर जुबली मनाई थी और पुरस्कार बटोरे थे। अशोककुमार, सुनील दत्त और मीनाकुमारी जैसे महान कलाकारों से दीप्त इस फिल्म के गीत उच्च कोटि के शायर मजरूह ने लिखे थे और उनकी कर्णप्रिय, स्तरीय धुनें हेमंत कुमार ने बनाई थीं।
'चली गोरी...' के तबले पर खुद रवि बैठे थे, जो उन दिनों हेमंत के यहां तबला बजाते थे। देखा जाए तो 'चली गोरी...' का ऐतिहासिक माधुर्य ही गड़गड़ाते हुए, जानदार, तबले पर टिका हुआ है। अर्से तक हेमंत कुमार की मौसिकी में तबला लीड पर बजा और 'तुम संग लागे पिया मोरे नैना...' (लता/ताज) जैसी दिग्विजयी मेलडी हमारे सामने आई।
हेमंत दा की आवाज में एक खास किस्म की खुश्की और भारीपन था। वह बिना जोड़-तोड़ लिए सीधी चलती थी और भद्रता का अहसास कराते हुए सीधे दिल में बैठती थी। उनकी आवाज को सुनकर सुकून मिलता था और कुछ घड़ी के लिए वैचारिक विकृति दूर भागती थी। इस अंचल, श्रृंगारिक गीत में जब हेमंत किसी सुमुखी को छेड़ते हैं, तो अश्लीलता, अशिष्टता, क्षुद्रता का बोध नहीं होता, बल्कि स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक, मधुर संबंध के प्रति अनापत्तिक, मीठा स्वीकार पैदा होता है। (खैर, 'लगे पचासी झटके...' का जमाना नहीं था वह!)
प्रस्तुत मेलडी सरपट भागती मधुर धुन, कर्णप्रिय संगीत, हेमंत के शालीन, श्रृंगारपूर्ण गायन और मुर्दों को जगा देने वाले प्राणवंत तबले के कारण.... स्मरणीय और कलजयी बन गई है!
चली गोरी पी से मिलन को चली- नैना बावरिया, मन में सांवरिया, चली गोरी पी से....
डार के कजरा, लट बिखराके, ढलते दिन को रात बनाके, कंगना खनकाती, बिंदिया चमकाती, छमछम डोले, सजना की गली, चली गोरी पी से....
कोमल तन है सौ बल खाया, हो गई बैरन अपनी ही छाया घूंघट खोले ना, मुख से बोले ना, राह चलत संभली संभली, चली गोरी पी से....
वक्त तो बीत गया है। पर हमारा बचपन ठहर गया है। जब तक यह गीत है, हम एक अर्थ में कभी बूढ़े नहीं होंगे, क्योंकि कला ही काल के कान उमेठ सकती है। और उमेठ देती है।