नागपंचमी पर विशेष गीत-गंगा

WDWD
सिनेमा अब हमारे भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। उससे हमारा रागात्मक संबंध है। एक तरह से अतीत की बहुत-सी भीनी-भीनी यादें सिनेमा और उसके संगीत के कारण जिंदा हैं। अब हम वापस लौटकर सिनेमा के न होने की कल्पना नहीं कर सकते। संसार जैसे सिनेमा पूर्व और सिनेमा पश्चात के दो खानों में साफ बँट चुका है।

विश्वास कीजिए, भारत के पिछले दशकों का सिने-इतिहास लिखा जाए तो इस गाने के बिना अधूरा रहेगा। जितना बाद में 'ये जिंदगी उसी की है/ मन डोले मेरा तन डोले/ दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे' जैसे गीत चले, वैसे ही देशव्यापी हद पर, तब के रिकॉर्ड तोड़तयह गीत बजा था!

यह भी देखिए कैसी भोली, धर्मप्राण जनता थी तब की कि एक गीत इतना अधिक इसलिए चल गया कि साँप की धार्मिक कथा को दर्शाती फिल्म में सुहागरात को एक नाग पति को काटने आता है और नायिका उसे गाकर लौट जाने को कहती है। पति थे अभिनेता मनहर देसाई और पत्नी थीं निरुपाराय! नाग अंततः पति को काट लेता है और वह मर जाता है।

रफी गाते हैं- 'अर्थी नहीं नारी का संसार जा रहा है, भगवान तेरे घर का सिंगार जा रहा है।' पत्नी, पति के शव को लेकर तीनों लोकों में घूमती है- 'धरती से गगन तक ढूँढूँ रे मेरे पिया तो कहाँ गए।' आखिर में चमत्कार घटता है और पति जीवित हो जाता है। यह 'नागपंचमी' की कथा थी। फिल्म 'नागपंचमी' ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। छोटे शहरों और कस्बों में यह खूब चली।

इंदौर के नवीनचित्रा टॉक‍िज में यह फिल्म पैंसठ सप्ताह तक चली थी। सन्‌ 53 का साल था। खंडवा की आबादी तब 35 से 40 हजार थी, मगर खंडवा में यह फिल्म 14 हफ्ते चली थी। इन तमाम डिटैल्स को यहाँ देने का मकसद यह है कि आप जान सकें कि भारत के सिनेयुग में किस मोड़ पर खास क्या हुआ।

जनाब, 'नागपंचमी' फिल्म की लोकप्रियता का यह आलम था कि दो-तीन साल तक (बाजार में बिकने वाली) रूमालों पर एक तस्वीर छपती रही- 'निरुपाराय मध्ययुगीन... कास्ट्यूम में नाग के सामने हाथ जोड़कर बैठी हुई है।' इसी फिल्म की आरती आज तक शिवरात्रि को बजाई जाती है- 'आरती करो, हर-हर की करो, नटवर की भोले शंकर की, आरती करो शंकर की।'

अन्य गीत जो सुपरहिट हुआ था,यह था- 'मेरी चुनरी उड़ाए लिए जाए, फुलवारी की ठंडी हवा।' इस फिल्म के तमाम नारी-गीत आशा ने गाए थे। 'ओ नाग' वाले गीत के कारण वे रातोंरात सारे भारत में प्रसिद्ध हो गई थीं। इसे आशा का सिनेमाई जन्म भी कहा जा सकता है। यह भी याद रहे कि इस फिल्म के सारेगीत सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि (बल्कि सिनेमा के शिवमंगलसिंह सुमन) गोपालसिंग नेपाली ने लिखे थे। नेपाली का तब बड़ा नाम था और शालीन आतंक भी।

संगीत अविनाश व्यास का था, जो धार्मिक फिल्मों में अक्सर संगीत देते रहते थे... आशाजी का यह गीत धुन, कविता और गुणवत्ता के हिसाब से ऐसी चीज नहीं है कि यहाँ कलम दीवानी होकर फेंटेसी में छलाँग लगा ले। फिर भी गीत की ऐतिहासिक स्थिति अटल है क्योंकि देश के इने-गिने अपार लोकप्रिय गीतों में से यह है। विश्वास न हो तो युवा पाठक अपने माता-पिता या दादा-दादी से पूछें। बोल-

देव वहीं पर रुक जाना, अब आगे मत आना!
अब शुरू होता है गाना।
ओ नाग कहीं जा बसियो रे!
मेरे पिया को न डसियो रे!
नील गगन में तारे सोये, यहाँ न आ मतवारे
अब तो जनम-जनम भर मेरे, दो नैना रखवारे!
ओ देव यहाँ से हटियो रे/ मेरे पिया को...
फूल के जैसा मेरा प्रीतम, मैं प्रीतम की छाया
मधुर मिलन की आधी रात को, विष भरने क्यों आया!
ये पाप कभी ना करियो रे/ मेरे पिया को...
आज हमारी सुहागरात है, हँसकर भोर करेंगे
डसना है तो डस दोनों को, हम साथ एक मरेंगे
(और आशा चढ़त में जाती है, करुण विलाप के साथ)
हम एक साथ मरेंगे, हम एक साथ मरेंगे
तू चैन से आके बसियो रे/ मेरे पिया को...

युवा मित्रों, यह था देश के अतीत का सिनेमा! सीधी-सादी, विश्वासी ग्रामीण जनता। सच यह है कि तब 'नागपंचमी' ने बॉक्स ऑफिस पर कहर ढा दिया था। !

वेबदुनिया पर पढ़ें