अमर कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय और अमर गायिका लता मंगेशकर एक मामले में बेहद समान हैं। जिस तरह लेखन द्वारा शरत बाबू ने भारतीय नारी के आदर्श, कोमल और समर्पित प्रेम को चित्रित कर हमें भुलाई न जा सकने वाली मधुर प्रेमिकाएँ दी हैं, इसी तरह लता ने भी अपने गायन से आदर्श, प्रेममयी, कोमल नारी को सिरजकर उसका मनभावन रूप हमारे सामने रखा है।
याद आ रहा है, कहीं पढ़ा था। कवि अपनी प्रिया के रूप और स्वभाव का बखान करते हुए एक जगह लिखता है- 'लता के गानों सा मधुर तुम्हारा यह मिजाज और तानों-सी विकल तुम्हारी यह प्रेम माँगती देह... सोचकर भीग जाती है आँखें...। सोचता हूँ, ऐसी तुलना गलत नहीं है। लता का गायन और भारतीय प्रेमिका एक-दूसरे में इतना घुल मिल गए हैं कि लता का भावपूर्ण मधुर गायन प्रेमियों की कविताओं में विशेषण हो गया है।... हो जाना चाहिए।...
ये तमाम बातें मुझे तब सूझ रही हैं, जब मैंने हाल ही सुरसरि का एक प्यारा-सा गाना सुना। अपने जमाने में यह खूब पसंद किया गया था और कॉलेजों की मौसमी गायिकाएँ इसे वार्षिकोत्सव के कार्यक्रम में खूब गाती थीं। परदे पर, यह फबता हुआ गीत उतनी ही कोमल नाजनीन नलिनी जयवंत पर आया था। पिया बने थे अशोक कुमार। इस गीत को कैफ इरफानी ने लिखा था और धुन में सजाया था मेलडी के राजकुमार मदनमोहन ने।
धुन तो खैर कर्णप्रिय थी और वाद्य संगीत भी मन को मोहनेवाला था। पर खास काम किया था लता ने। इस गीत को गाकर उन्होंने ऐसी मधुर, सुगढ़, यौवना मूर्तिमान कर दी थी कि सचमुच की 'उषा' के बजाय कल्पना की यह 'अर्पणा' अच्छी लगने लगे और असहनीय प्रेमावेग में मन बैरागी हो जाए।
पानी से बहते कोमल फ्लो में जब लता 'पिया' शब्द को उठाती हैं तो मन एक साथ बीजगुप्त और देवदास हो जाता है। समझ नहीं आता, लता को प्यार किया जाए या उस पात्र को जिसे लता गढ़ती हैं। इस गीत ने परदे पर नलिनी जयवंत के सौंदर्य को भी सात्विक बना दिया था और हमारी कामुकता पर गंगाजल से गीली दस्ती फेर दी थी।
लता की यही देन है देश को, कि उन्होंने अपने गायन द्वारा पावनता का माहौल गढ़ा। यह दिव्य शुचिता न आशा में आई, न गीता में और न लता की सीनियर नूरजहाँ में! लता के गीत नारीदेह बन जाते!
कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि लता खुद नारी हैं तो उनके गीत अच्छे लगेंगे ही। इसका करारा जवाब देते हुए गुरु (स्वर्गीय) श्रीकांत जोशी ने प्रश्न उछाला था- 'किस किस्म की नारी? यह भी तो गीत के पीछे काम करने वाली बात है।' प्रश्नकर्ता चुप! लता फिर जीत गई थीं। चाहूँगा कहीं से आप इस गीत को जरूर सुनें और समझें कि लता न होतीं, हम खुद कितने अधूरे रह जाते! मदनजी के सम्मान में अब आप गीत पढ़ें- फिल्म थी शेरू और सन् 1957....
नैनों में प्यार डोले, दिल का करार डोले तुम्हें जब देखूँ पिया, मेरा संसार डोले (रिपीट) जाए कभी ना मेरे दिल से लगन तेरी होके रहूँगी मैं तो ऐसे सजन तेरी (रिपीट) कलियों के साथ जैसे भँवरों का प्यार डोले तुम्हें जब देखूँ पिया मेरा संसार डोले नैनों में प्यार... तुमने बसाया मुझे अपनी निगाहों में फूल खिलाए मेरी प्रीत की राहों में (रिपीट) अँखियों में प्यार भरा नया इकरार डोले तुम्हें जब देखूँ पिया मेरा संसार डोले नैनों में प्यार.../नैनों में प्यार डोले।
इस गाने में लता एक भी शब्द को मिस नहीं करतीं। वे हर शब्द के अर्थ के आकाश को समझती हुई उसमें भाव का समंदर उड़ेलती हैं। उस आनंदित प्रेमिका को खड़ी करती हैं जिसकी समूची देह को गीत का संपूर्ण अर्थ रचता है। लगता है लता स्वयं प्यार कर बैठी है, जबकि गाते समय उन दिनों वे गंभीर ही रहा करती थीं।
इशारा यह है कि उस दौर में सिनेमा में जो काम हुआ, उसमें कला और स्तरीयता को ही आदर्श मानकर आगे बढ़ा जाता था। कला के लिए दीवाने ये लोग सांस्कृतिकता के चरणों में लौटते थे और आत्मसंतुष्टि को देवप्रसाद समझते थे। अब न वह दौर रहा और न उस वक्त के इंसान! बस बीमार दिल की थोड़ी दवा देना हो, तो उन्हीं के दवाखाना- ए-मौसिकी में लौट जाइए।