ये झुकी-झुकी-झुकी निगाहें तेरी...

आगे की लाइन है- 'दिल का राज कह गईं, तुझको प्यार है कहीं, अब ये बात कैसे छिप सकेगी तेरी।'

कहिए याद आ गई/रफी साहब की यह बेहद मीठी, हंगामेदार, तेज भागती हुई मेलडी। ऐसी कि तबीयत बाग-बाग हो जाए, अफसुर्दगी घुनकर तिनका-तिनका उड़ जाए और बूढ़ी नसों में जवानी चटक उठे।

याद रहे, यह संगीतकार उषा खन्ना की बंदिश है, जिन्होंने फिल्म 'दिल दे के देखो' (सन्‌ 1956) से तूफानी एंट्री की थी और पहली ही फिल्म में अपनी काबिलियत का लोहा मनवा लिया था।

अजी गीत क्या है- कानों पर मिठास की बरसात करने वाला अटूट, खिलखिलाता झरना है। धुन तो खैर कर्णप्रिय है। मगर प्यानो, गिटार और ढोलक का काम और भी बढ़-चढ़कर है। एक खास गत (इन्स्ट्रुमेंटल धुन) में ये तमाम साज एक खास अदा अख्तियार करते हैं और अलग से जी भरके रिझाते हैं। ऐसा लगता है कि जवानी और शोखी से भरा तूफानी प्रेम, कदम-कदम पर, फूल लुटाता चला जा रहा है और कभी रुकने का नाम नहीं लेगा।

गिटार की गूंजती हुई टुनक, ऊपर-नीचे हिचकोले भरती हुई, इस अंदाज से उड़ान भरती है कि दिल नामक सूखा पत्ता इस आँधी में जाने कहाँ पीछे छूट जाता है। मियाँ, इस गीत को अगर आपने नहीं सुना, तो जन्नत के जाम की एक 'सिप' से महरूम हो गए और इसका आपको सख्त से सख्त अफसोस करना चाहिए।

शायद इस गीत को सुनकर ही शायर रघुपति सहाय फिराक ने लिखा होगा-
किसी की बज्मे-तरब में हयात बँटती थी
उम्मीदवारों में मौत भी नजर आ

उषा खन्ना के आनंदोत्सव में जिंदगी बाँटी जा रही थी और मौत भी वहाँ कटोरा लेकर थोड़ी-सी जिंदगी माँगने जा पहुँची। इस तामीर (याने गीत) की ताकत ही कुछ ऐसी है। पर्दे पर इसे जॉय मुखर्जी ने जमीन की परी सायरा बानो के लिए गाया था। फिल्म का नाम अभी नहीं बतलाऊँगा। थोड़ा तरसाने-तड़पाने का इरादा है। क्या करूँ, मेलडी ही कुछ ऐसी है। साल था 1964 का।

खैर, जैकपॉट वाले राजेन्द्रकृष्ण साहब के बोलों से गुजरिए-

ये झुकी-झुकी झुकी निगाहें तेरी
ये रुकी-रुकी-रुकी-सी आहें तेरी
दिल का राज कह गईं, तुझको प्यार है कहीं
अब ये बात कैसे छिप सकेगी तेरी,
ये झुकी-झुकी निगाहें।... वाह वाह!
मस्तियों में डूबी मस्त-मस्त तेरी अदा
अदाओं में झूमता हुआ-सा एक नशा
(दोनों लाइनें फिर से)
ये राज है क्या, समझ लिया, समझ लिया
ये झुकी-झुकी सी...छिप सकेगी तेरी, हाय,
ये झुकी-झुकी निगाहें
ये सादगी, ये बाँकपन, ये शोखियाँ
मुँह छुपा नहीं तो गिर पड़ेगा आसमां
ये झूठा क्या, खुदा गवाह, खुदा गवाह,
ये झुकी-झुकी निगाहें तेरी,
ये रुकी-रुकी-रुकी सी आहें तेरी,
दिल का राज कह गईं, तुझको प्यार है कहीं,
अब ये बात कैसे छिप सकेगी तेरी,
ये झुकी-झुकी...छिप सकेगी तेरी
ये झुकी-झुकी....
और फेड आउट

याद आते रहते हैं रफी साहब अपनी बेबाक मस्ती, और बेसाँस दौड़ भरती जानलेवा मेलडी के कारण। यह याद आँख भी नम कर जाती है, क्योंकि ये वे ही रफी हैं, जिन्होंने 'देखी जमाने की यारी/ लगता नहीं है दिल मेरा/ टूटे हुए ख्वाबों ने/ ये कूचे ये नीलाम घर/ दिलकशी के/ हजारों रंग बदलेगा जमाना/ तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएँ और चिराग दिल का जलाओ बहुत अंधेरा है-जैसे मजाहिया नगमे गाए थे और पत्थरों में साँस पैदा कर दी थी।

सब्र पर दिल को तो आमादा किया है, लेकिन होश उड़ जाते हैं अब भी तेरी आवाज के साथ। फिल्म थी-आओ प्यार करें।

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