एक दौर के सिने दर्शकों ने ट्रेजेडी को पसंद किया और दर्द के सिनेमा को सुपरहिट बनाया। आज दिलीपकुमार, मीनाकुमारी और तलत मेहमूद हाशिए की चीज हो गए हैं। पश्चिमी भोगवाद ने कला को लील लिया है।
किससे बात करें अब? जमाना तो सुनने से रहा। सो अपने से ही भिड़ लेते हैं। कहना यह है कि अब वह दौर नहीं रहा, जब कला और सिनेमा में दर्द की कद्र की जाती थी। बर्बाद जवानी की झूठी कथाओं पर आँसू बहाए जाते थे और कला का लुत्फ उठाया जाता था।
आज 'देवदास' की कथा कितनी भी हास्यास्पद और कायराना समझी जाए, तब उसकी व्याख्या यह नहीं होती थी कि मूर्ख देवदास एक स्त्री के वियोग में दारू पीकर मर गया, बल्कि यह समझा जाता था कि प्यार होता ही इतना ऊँचा है कि उसमें शादी करके घर नहीं बसाया जाता और दुनिया की सुख-सुविधाओं, सुंदरियों को ठुकराकर किसी अलभ्य चेहरे की याद में पूरी तरह बर्बाद हुआ जाता है।
वे ट्रेजिक कथाएँ पार्थिव प्रेम को बहाना बनाकर दरअसल ईश्वरीय प्रेम की ओर इशारा करती थीं, जिसमें परमात्मा को पाने के लिए मरघटी वैराग्य साधा जाता है। यानी शरद बाबू तय करके कोई फायदे-नुकसान की दुःखांत कथा लिखने नहीं बैठे थे। रचनाकार का अवचेतन- जो स्वयं परमात्मा है- खुद भाषा को, तर्क को, दुनिया को फलाँगने का छुपा संदेश देता हुआ, अहंकार के बलिदान के मार्फत (देखने में तथाकथित तबाही) मोक्ष या अंतिम आनंद को प्राप्त करने का प्रतीक गढ़ता है।
यही वजह है कि एक दौर के सिने दर्शकों ने ट्रेजेडी को पसंद किया और दर्द के सिनेमा को सुपर हिट बनाया। 'दिले नादान' सन 1953 की फिल्म है। स्वयं तलत मेहमूद इसके हीरो थे। गुलाम मोहम्मद की मौसिकी और शकील साहब के गीतों से सजी इस फिल्म ने देश को उम्दा दर्दीले गीत दिए।
'जिंदगी देने वाले सुन तेरी दुनिया से जी भर गया', 'जो खुशी से चोट खाए वो जिगर कहाँ से लाऊँ', 'मोहब्बत की धुन बेकरारों से पूछो', और आज का यह आलोच्य गीत। यह वह दौर था, जो खास तौर पर दिलीप कुमार और तलत मेहमूद का बनाया हुआ था। सन 50 के सालों से दिलीप और तलत को निकाल दीजिए, दर्द और आँसू का लुत्फ चला जाता है और हम कोयले के व्यापारी हो जाते हैं।
तलत ने अपने नर्मो-नाजुक गायन से हमारे दिल की रगों को सितार के तारों-सा संवेदनशील बना दिया था, हम हिंसक होने से बचे हुए थे। 'ये रात सुहानी रात नहीं' गजल गायिकी के राजकुमार तलत का वेदनापूर्ण गीत है। कला में उपजा यह दर्द हममें लिजलिजी भावुकता पैदा नहीं करता, बल्कि हमें शरीफ, अहिंसक और सभ्य बनाता है। वह हमारी रूह को धोता है और तारों से बात करना सिखाता है।
तलत को सुनने वाला इंसान अगर किसी का खून करने जा रहा हो तो पलभर को छुरा एक तरफ रख देता है और मकड़ी के जाले में अटकी शबनम की बूँदों को हसरत से निहारने लगता है। इस गीत में तलत अपनी काँपती, घायल आवाज से दर्द का ऐसा समाँ गढ़ते हैं कि जहाँ हम एक तरफ उदास होते हैं, वहीं दूसरी तरफ ओस में नहाकर पाक-साफ भी निकलते हैं। हम यहाँ दुनिया के तमाम बर्बाद प्रेमियों के साथ हो जाते हैं और हमने प्रेम किया हो या न किया हो, अपने दर्दे-इश्क को भी यहाँ देखने लगते हैं।
तलत को सुनकर आप बिना पारो के सच्चे देवदास हो सकते हैं और यही कला की विश्वविजयी ताकत है। रोना यही है कि जमाना दर्द की लज्जत को भूल गया और इसीलिए प्यार करना और किसी के प्यार को पहचानना भूल गया। कला में ट्रेजेडी का यह पतन समाज के सांस्कृतिक पतन और खोए हुए मानसिक स्वास्थ्य की निशानी है। फिराक गोरखपुरी ने लिखा था- रुसवाई से क्यों डरते हैं इस दौर के आशिक, एक हम भी तो तेरे इश्क में बदनाम रहे हैं।
यहाँ वे कोई हल्का-फुल्का, मजाकिया शेर नहीं कह रहे थे, बल्कि मानीखेज (अर्थपूर्ण) संजीदगी के साथ यह इशारा कर रहे थे कि जीवन से तमीज, हिम्मत और कला-कविता को समझने वाली नजर मिटते जा रही है। तलत का यह दुःखभरा नगमा, उनके दीगर नगमों की तरह हमारी मुर्दा रगों में सांस्कृतिकता के दीये जलाता है। इसे सुनें और पलभर को देवदास बनें। देवदास बनना पारो के लिए मरना नहीं, खुशबू से भरी उस ख़ला (शून्य) में समा जाना है, जहाँ से कई देवदास, पारो और चंद्रमुखियाँ आते हैं। ...कला-साहित्य कभी मौत को तरजीह नहीं देते।
पढ़िए गीत की शब्द रचना
-ये रात, ये रात/ ये रात सुहानी रात नहीं, ऐ चाँद-सितारों सो जाओ। ऐ चाँद-सितारों सो जाओ, सो जाओ, सो जाओ (मुखड़ा फिर से)
अरमान लुटे दीवाने के, पर टूट गए परवाने के (2) न मौत मिली न आजादी, किस्मत में लिखी थी बर्बादी अब कौन कहे दुनिया को हसीं, नाकाम बहारों सो जाओ ऐ चाँद-सितारों सो जाओ, सो जाओ, सो जाओ।
ऐ रंजो-अलम से बेगानों, तुम मेरा फसाना क्या जानो (2) वो चोट लगी है सीने पर, मजबूर हूँ आँसू पीने पर दिल से न उठे तूफान कहीं, बेताब नजारों सो जाओ ऐ चाँद-सितारों सो जाओ, सो जाओ, सो जाओ। ये रात सुहानी...
अक्सर नारा दिया जाता है कि कला-कविता बचेगी तो आदमी बचेगा, समाज बचेगा। इसी में यह भी जोड़ लें कि कला-संगीत में ट्रेजेडी बचेगी तो आदमी की हस्सासी और अखलाक बचेगा। हम यही ढंग से, सही वक्त पर, उदास होना और आँसुओं से भीगना सीखें तो ही मोहब्बत के काबिल बने रहेंगे! वर्ना...!
पाल ले इक रोग नादाँ जिंदगी के वास्ते सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं।