शोख नजर की बिजलियां...

आपने फिल्म 'ये रास्ते हैं प्यार के' का यह मशहूर गीत अनेक बार सुना होगा- 'आज ये मेरी जिंदगी, देखो खुशी से झूमती, जाने चली कहां...।' मिजाज और अहसास में यह गीत भी करीब उसी तरह है। दोनों को आशा भोंसले ने गाया है। फर्क इतना है कि पहले गीत के संगीतकार रवि थे, जबकि 'शोख नजर की बिजलियां...', मदनमोहन साहब की कंपोजिशन है। वैसे मदनमोहन की यह चीज उन क्लासिक ऊंचाइयों, बारीकियों, अहसासों के विरोधाभास और कलात्मक टेंशन तक नहीं जाती, जो रवि के गीत की खूबियां हैं। और इसका कारण यह है कि 'ये रास्ते हैं प्यार के' में सिचुएशन, किरदार, कथा का उलझाव और पति तथा प्रेमी के बीच बंटी हुई एक भली किंतु अय्याश पत्नी का द्वंद्व सभी कुछ क्लायमेक्सी सघनता (इन्टेन्सिटी) लिए हुए था। मदनजी के इस गीत को ऐसी कठिन, कलात्मक शर्तों से गुजरना न था, अतः यह गीत एक साधारण मेलडी होकर रह गया है।

वैसे मेलडी शब्द भी यहां भारी है। फिल्म 'वह कौन थी' (1964) का यह गीत दरअसल अपनी सेन्सुअसनेस, दूरदराजी धुन, आशा भोंसले के नशीले और दर्दभरे गायन तथा राजा मेहंदी अली खां की शायरी के कारण उल्लेखनीय है। और अगर इसे अपने आप में स्वतंत्र गीत के रूप में सुना जाए, तो ऐसी कई बातें हैं, जो इस गीत को साधारण से अधिक और असाधारण से कम के बीच कहीं रखती हैं। फिर, मदनमोहन के निर्देशन की कसावट, कल्पनाशीलता और गायिका से कराई हुई मेहनत और हस्सास गुलूकारी (संवेदनशील गायन)... अपना रवायती अंदाज लेकर हाजिर है। इसे गौर से सुनें तो साफ अहसास होता है कि ऑर्केस्ट्रा और आशा से खास दर्जे का काम लिया गया है।

सबसे पहली चीज है- स्वयं गीत की धुन। मुखड़े को ही कुछ नशीले और फिसलते अंदाज में उठाया गया है। ऐसा लगता है जैसे क्लब की कोई नर्तकी गा रही हो। गीत में दर्द और मादकता का मिला-जुला पुट है। धधकती जवानी और मोहब्बत का सुरूर अपनी कसक और मिठास साथ लेकर चलते हैं। आशा इस गीत को इस तरह गाती हैं, जैसे एक फोड़ा है, जो पक गया है और खुजा भी रहा है। बता दें, ऐसे गीत गाने में आशा का सानी नहीं, जहां जवां गोश्त की सिल्कन और उस सिल्कन के लुत्फ को मिलाकर गाना हो। उर्वशी-सी यह मादकता और चित्रलेखा-सा यह बैरागी अवसाद उनके गायन को निसर्ग से मिला हुआ है। उन्हें सुनना कभी-कभी 'भोग' और 'जोग' का एक साथ अहसास करना है।

दूसरा कमाल मदनमोहन का ऑर्केस्ट्रा, खास तौर पर वायलिनें करती हैं। यहां वे वायलिनों की चीत्कार और आंधी से विचलन (रादर डिरेजमेंट, स्किजोफ्रेनिया) का ऐसा 'डिस्टर्बिंग' समां खड़ा करते हैं कि अक्ल न जान पाए मगर मन समझ लेता है कि दिलों में चाहतों का तूफान क्या होता है? कला में 'डिस्टर्बेंस' और 'डिसॉर्डर' का यह कलात्मक सृजन उलटकर कलात्मक सुख ही देता है। हम एक साथ ऐसे प्यारे तनाव से गुजरते हैं जिसे आशा का गायन और मदनमोहन का ऑर्केस्ट्रा बराबर की ताकत से उभारते हैं, इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि संगीतकार के साज यहां गायन को मात्र टेका नहीं देते, बल्कि अपनी ओर से उस जज्बे और थीम को भी सघन करते हैं, जिसे आशा अलग से गाती हुई अपने ढंग से इन्टेसीफाय करती हैं। फिर अजब-सा लुत्फ यह है कि गीत उदास इश्क का रंग लिए हुए है और उसी समय झीनी-सी मादकता से भरपूर भी है।

आगे, दाद देनी होगी जंगल की तरह तरोताजा और रात की झील की तरह भीतर जलती हुई आशा को, कि वे यहां आग में, गुलाबजल से भीगी हुई चिंधी जलाती हैं। और शहद में डूबा हुआ एक हरा कांटा हमारे नर्म मांस में चुभाती हैं। हम कह पड़ते हैं-

यूं थी तो शबे हिज्र मगर पिछली रात को,
वो दर्द उठा फिराक कि मैं मुस्कुरा दिया।

अब पढ़िए, गीत की इबारत-

शोख नजर की बिजलियां,
दिल पे मेरे गिराए जा
मेरा न कुछ खयाल कर,
तू यूं ही मुस्कुराए जा,
शोख नजर की बिजलियां!
जाग उठी है आरजू, जैसे चराग जल पड़े
अब तो वफा की राह में हम तेरे साथ चल पड़े
चाहे हंसाए जा हमें, चाहे हमें रुलाए जा,
शोख नजर की.... गिराए जा/
शोख नजर की बिजलियां!
चैन कहीं न किस घड़ी, आए न तेरे बिन कभी
काश, मैं इस जहान से, छीन लूं एक दिन तुझे,
मैं तेरे साथ-साथ हूं, चाहे नजर बचाए जा
शोख नजर की बिजलियां,
दिल पे मेरे गिराए जा
मेरा न कुछ खयाल कर,
यूं ही मुस्कराए जा,
शोख नजर की बिजलियां!

एक बात और बता दें, फिल्म में यह गीत 'स्केटिंग' करती हुई नायिका पर है। यही कारण है कि गीत के मुखड़े में फिसलन का इफेक्ट आया हुआ है। और, बीच-बीच में संगीत, जहां अंतरों के आरंभ होने की भूमिका बनती है, स्केटिंग की तेजी और मन की तूफानी हलचल को सजेस्ट करता है। नौशाद साहब एक निजी वार्ता में बता रहे थे, कि जैसे बढ़ई रंदा चलाकर लकड़ी को एकदम समतल और तलहट (फाउंडेशन) बना देता है, वैसे ही हम रियाज करा-कराकर गायक से एकदम बेस से (और ठहराव से) गवाते हैं। बस ऐसा लगे जैसे पहाड़ सरक रहा है या नदी पत्थर होकर बह रही है। यही बात आप मदनजी पर भी लागू कर सकते हैं। इस गीत को गहराई से सुनिए। ऐसा लगेगा जैसे तने हुए तार पर हाथी चल रहा है। और चलता हुआ स्थिर भी है। यह कमाल आशा ही कर सकती थीं, क्योंकि भाव के बहाव को निभाते जाना और गायन की स्थिरता को बनाए रखना आसान काम नहीं है। मदन और आशा के मेल का यह गीत आम से लेकर खास श्रोता के बीच समान-सा दीया जलाए चलता है।

थैंक्स मदनजी।
थैंक्स आशाजी।

क्या हुस्न है, जमाल है, रंग-रूप है
वो भीड़ में भी जाए, तो तनहा दिखाई दे।

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