Atal Bihari Vajpayee poems: अटल जी की जयंती पर पढ़ें उनकी अनूठी रचनाएं
Atal Bihari Bajpai: अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिवस 25 दिसंबर को मनाया जाता है। वे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और 'भारतरत्न' से सम्मानित देश के एक बेहतरीन राजनेता थे। आइए यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी खास लोकप्रिय अनूठी कविताएं...
1. गीत नहीं गाता हूं
बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
लगी कुछ ऐसी नजर,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
पीठ में छुरी सा चांद,
राहु गया रेखा फांद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं।
गीत नहीं गाता हूं।
2. न मैं चुप हूं, न गाता हूं
सवेरा है, मगर पूरब दिशा में घिर रहे बादल,
रुई से धुंधलके में मील के पत्थर पड़े घायल,
ठिठके पांव,
ओझल गांव,
जड़ता है न गतिमयता,
स्वयं को दूसरों की दृष्टि से मैं देख पाता हूं।
न मैं चुप हूं, न गाता हूं
समय की सर्द सांसों ने चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती चुनौती एक द्रुममाला,
बिखरे नीड़,
विहंसी चीड़,
आंसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर अकेला गुनगुनाता हूं।
न मैं चुप हूं, न गाता हूं।
3. खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बंट गए शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार गड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गए नानक के छन्द
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी वितस्ता है,
वसंत में बहार झड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं गैर,
खुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता
बात बनाएं, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
4. हरी-हरी दूब पर
हरी-हरी दूब पर
ओस की बूंदें
अभी थीं,
अब नहीं हैं।
ऐसी खुशियां
जो हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
क्वाँर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पांव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूं
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूंढूं?
सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊं?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पीऊं?
सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी।
5. आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा,
सूरज परछाईं से हारा,
अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दीया जलाएं।
हम पड़ाव को समझे मंजिल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दीया जलाएं।
आहुति बाकी, यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दीया जलाएं।
6. हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार-क्षार।
डमरू की वह प्रलय-ध्वनि हूं जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचण्डी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधारय।
फिर अन्तरतम की ज्वाला से, जगती में आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अम्बर, जड़, चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं आदि पुरुष, निर्भयता का वरदान लिए आया भू पर।
पय पीकर सब मरते आए, मैं अमर हुआ लो विष पी कर।
अधरों की प्यास बुझाई है, पी कर मैंने वह आग प्रखर।
हो जाती दुनिया भस्मसात्, जिसको पल भर में ही छूकर।
भय से व्याकुल फिर दुनिया ने प्रारंभ किया मेरा पूजन।
मैं नर, नारायण, नीलकंठ बन गया न इस में कुछ संशय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं अखिल विश्व का गुरु महान्, देता विद्या का अमरदान।