कविता : रेत के पैरों पे ये निशान किसके हैं?

कुछ तो
उन औरतों के लगते हैं
जो परतंत्रता से हांफ के भाग रही होंगी 
बाल उसके हब्बा ने भींच रखे होंगे 
उसके वक्षों को शैतान ने जकड़ा होगा 
और वह बदहवास दौड़ रही होगी 
तभी निशान इतने गहरे, अमिट और वीभत्स हैं।
 
या 
 
जब आदिमानव पहली बार 
अतरियों के ऐंठन से त्रस्त 
ठंड की कंपकंपी से बेसुध
अस्तित्व के खतरे से डरा हुआ 
आग की खोज में निकला होगा 
तभी निशान इतने सजीव, मूर्त और अडिग हैं। 
 
या 
 
कोई नदी 
जो अपने उद्गम से गंतव्य को निकली हो 
मिट्टी और चट्टान से लड़ी हो 
घाटी, प्रपातों, पहाड़ों से गिरी और फिर उठी हो 
अनगिनत पेड़-पौधे उसके उदर से जन्मे हों 
तभी निशान इतने कोमल, सुन्दर और स्वेत हैं। 
 
या 
 
किसी सभ्यता के 
जो स्थापित होने के क्रम में हो 
पर्वजों और मान्यताओं से जिसे बैर रहा हो 
जिसके सर पर नवनिर्माण का भूत सवार हो 
और खुद को वर्तमान का पुरोधा समझता हो 
तभी तो निशान इतने क्रूर, वहशी और नृशंस हैं। 

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