कविता : तुमको ये मेरा नमन आखिरी है

सजदे करता था मैं श्रीराम तुमको
हंसके कह देते थे तुम अपने गम को
नहाने को गए तुम जब मुलाकात करके
जुदा हो गए सदा के लिए न लाए रूह तन में
जीवन में चले थे तुम मदमस्त होकर
पर जिंदगी की शाम ये तुम्हारी आखिरी है।
 
भले ही चले थे तुम ठुकरा के दुनिया को
जिंदगी को ठुकराने का ये तुम्हारा मुकाम आखिरी है 
नर्मदा स्नान कर जान देने चले तुम 
जिंदगी में तुम्हारा ये स्नान आखिरी है
अपनी तरफ से मैं नमन करता हूं
तुम्हें भी मौसाजी/ श्रीराम ये मेरा नमन आखिरी है। 
 
लगे रहे तुम परहित में, परहित न घर का कर सके
दिल टटोला करती दुनिया तेरा, दाता बन तुम देख न सके
सूरतें देखी लाख तूने, पर दाग न देखे खुद के सीने में
ये कैसा चस्का लगा रहा तुमको, खुद घर को अपने भूल गए।
 
धन-दौलत का गरूर तेरा, पर तन-मिट्टी ने न साथ दिया
मौत की आंधी से टकराकर, ये जिस्म इमारत खाक हुई
30 अगस्त 1993 को, जीवन का ये पड़ाव आखिरी है
तन मिल गया पंचतत्व में, धरती पर तेरा ये मुकाम आखिरी है 
मेरी तरफ से नमन तुम ले लो, श्रीराम को ये मेरा नमन आखिरी है।

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