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मणिपुर घटना पर कविता : आंख का पानी मर चुका है
स्मृति आदित्य
बहुत तृप्त हुए होंगे ना
उससे पहले निर्लज्ज हुए होंगे ना
क्या मिला तुम्हें
वस्त्रहीना स्त्री में
निर्वस्त्र नारी में
एक देह, एक शरीर, एक हांड़ मांस का पुतला...
फिर अट्टाहास किए होंगे
परिहास और उपहास किए होंगे
एक बार सोचना कहां है
वह वस्त्रहीना स्त्रियां अभी
क्या कर रही होंगी
क्या सोच रही होंगी
आंसू, क्रोध और शर्म से
किस किस को कोस रही होंगी
नहीं
तुम नहीं सोच सकोगे
तुम नहीं जान सकोगे
भीतर कितनी किरचें बिखरी होंगी
उम्मीदों की कितनी किरणें बुझी होगी
मर जाने या मार देने की बातें भी सुझी होंगी
तुम नहीं जानते
तुमने इस धरती की उस बेल के पत्ते उतारे हैं
जिसमें जीवनरस बहा था
जिसने तुम्हें धरा पर लाने को
ना जाने क्या क्या सहा था
तुमने एक दो या तीन स्त्रियां
वस्त्रहीन नहीं की
जीवन के पांच तत्वों को नग्न किया है
वस्त्रहीना वह स्त्रियां
धरा, आकाश, समीर, अग्नि और नीर है
और आज
धरा चुप है
आकाश बरस रहा है
समीर मंद है
अग्नि प्रचंड है
और नीर
नीर तो इन सबकी आंखों में है....
वह अब हममें कहां बचा है
हमारी आंख का पानी बहुत पहले मर चुका है
बचा हुआ बह बह कर थक चुका है....
एक कहावत है शर्म से पानी पानी होना
जो किताबों में दुबक रही है ... और
उस घर की इज्जत आज हर घर में सुबक रही है...
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