कविता : आज बांटते हैं.. रोशनी नन्हे दीप की..

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न करना था...कर दिया..
बंटवारा इस धरती का...,
वो तुम्हारे पैरों तले जो है..!
पर धरा पर खिले फूलों की 
खुशबू का बंटवारा न कर सके...।
 
बंटवारा माथे ऊपर के आसमान का न कर सके...
तो चांद का ही कर दिया...
तेरा-मेरा करवाचौथ-ईद का चांद....
पर उन पंछियों का न कर सके,...
जो विचरते रहे,दूर क्षितिज तक...।
 
मगर इस बार कोई बंटवारा नहीं ..
हम बांटेंगे  मगर नफरत नहीं..सिर्फ मुहब्बत...
 
तो बांटने की प्रथा को जारी रखते हुए..
आज बांटते हैं.. रोशनी..नन्हे दीप की..
जो जले मेरी देहरी पर,उजाला हो तेरे आंगन में ....
जो जले तेरी देहरी पर,उजाला हो मेरे मन में..
इस तरह जले करोड़ों दीये और उजाला हो..
इस धरा पर,उस गगन में ..
समूची दुनिया के अंजुमन में ..

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