यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
कुछ खोकर ही बहुत कुछ मैं पाता हूं
पुस्तकें है मित्र और, कलम मेरी ताकत है।
सत्यव्रत को संग लिए आगे बढ़ता जाता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
मात पिता पहले गुरु, ये बात सभी जानते,
हूं दूसरा गुरु मैं भी, मुझे मातृ तुल्य मानते,
बच्चों से अपने घर के, नेह बहुत है मुझको।
शाला के बच्चों से वही अपनापन जताता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं।
श्वेत कोरे पन्ने सा होता है उनका बालपन,
असंख्य आस से भरे उनके नन्हे दो नयन,
ढेर सारी जिज्ञासा मन की गुल्लकों में भरी।
वो प्रश्न कई पूछते है, मैं भी उन्हें बताता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
देखा है मैने कई बार, मौन उन्हें रहते हुए,
मन में झिझक होती है, बात कोई कहते हुए,
मैं कोष्ठकों की बंदिशें, सबसे पहले खोलकर,
गुणा, भाग करके, कुछ जोड़ कुछ घटाता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
गलती पर उनकी मुझको, गुस्सा है यदि आता,
ऊपर से सख्त दिखता, हूं मन में मुस्कुराता,
वो भी है हंसते रहते, हाथ मुंह पर रखकर।
उनके भोलेपन से, मैं सीखता सीखता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
अव्वल रहे पढ़ाई में, या खेल के मैदान में,
व्यापार हो या रंगमंच, या खेत खलिहान में
देख अपने शिष्यों को, उन्नति शिखर पर मैं,
नयनो में अश्रु भरकर, फूला नहीं समाता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
कुछ लोग ये भी कहते, कोई काम नहीं करते हो
पूरे साल सबसे अधिक, छुट्टियां ही गिनते हो,
शिक्षा के साथ निर्वाचन, आपदा से लेकर मैं,
जनहित के अभियानों में, भूमिका निभाता हूं
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं
नही है मात्र साधन, ये कर्म जीविका का।
है साध्य मेरा भारत, गुरु बने जगत का।
बनाया है इस योग्य, मुझे मेरे शिक्षकों ने,
मैं जन गण को अपने, सुशिक्षित बनाता हूं।
यूं ही नहीं मैं, शिक्षक बन जाता हूं।
विवेक कुमार शर्मा, शिक्षक
शास. अहिल्या आश्रम कन्या उ.मा. विद्यालय क्र. 2 इंदौर