कवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की याद में

- इतिश्री सिंहा राठौर (श्री)

 

 

कवि 'विद्रोही' को मैंने सिर्फ तस्वीरों में ही देखा। पहले कभी मैंने उनकी कविता नहीं पढ़ी लेकिन हां, अपने जेएनयू के दो-तीन दोस्तों से उनके बारे में सुना था। शायद उनकी मौत न होती तो उनके बारे में  ज्यादा जानने का मौका तक न मिलता और उसी दिन ही मैंने उनकी कविताएं पढ़ीं। 
 
कविताओं को पढ़कर पता नहीं क्यों मन में खलबली-सी मच गई और उनके बारे में लिखे बिना रह नहीं  पाई। यह कविता उनकी ही कुछ कविताओं से प्रेरित है। पता है मुझे कि दूसरा 'विद्रोही' फिर से जन्म न  लेगा लेकिन इस कविता के माध्यम से कहीं-न-कहीं मैंने उनकी भावनाओं से जुड़ने का प्रयास किया। 
 
आज एक कवि मर गया
आपका, हमारा, पूरी दुनिया का
लेकिन मोहनजोदड़ो के तालाब की सीढ़ी पर पड़ी उस औरत 
की लाश के पास आज भी बसती है उसकी कविता
 
कुएं में कूदकर चिता में जलती उन औरतों
की समाधि में आज भी बसती है उसकी कविता
 
सती होने वाली उन महारानियों की 
मजबूरियों में आज भी बसती है उसकी कविता
 
बड़ी होकर चूल्हे में लगा दी जाने वाली
लड़कियों की सिसकियों में आज भी बसती है उसकी कविता
 
आसमान में धान बोने वाले किसान के
दिल में सुलगते अभाव की आग में 
आज भी बसती है उसकी कविता
 
आज एक कवि मर गया
आपका, हमारा, पूरी दुनिया का
लेकिन कहीं-न-कहीं भटकती है उसकी कविता
 
जेएनयू की गलियों में, दीवारों में
और हवाओं तक में
जिसको आग से बचा न सके हम पर
हमेशा दहकती रहेगी उसकी कविता
 
सच्च में यह 'विद्रोही' बड़ा ही तगड़ा कवि था
सभी को अपनी कलम से मारने के बाद ही मरा। 
 
 

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