हरीश निगम के गीत

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मछली खुद उलझे हैं जाल में!

जलकुंभी फैल गई ताल में!
मौन खड़े, देखते रहे तट,
मौसम की, रोज नई करवट,

मछुए खुद उलझे हैं जाल में!

बगुलों के नाम हुआ पानी,
बाकी है रेत की कहानी,

घाव कई मछली के गाल में!

पथरीली, हो गई हवाएँ,
नौकाएँ, भूलती दिशाएँ,
छेद मिले तने हुए पाल में!

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हरे नहीं हो पाए सूखे प

फिर पछुआ के वादे टीस गए।
हरे नहीं हो पाए सूखे पल,

मन के भीतर फैल गया जंगल।
सब के ही खाली आशीष गए।

बेचैनी, कमरे में रही तनी,
बिखरी है साँसों में नागफनी।
दिन मुट्ठी में हमको पीस गए।


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धूप-बाद

मरुथलों में खो गए सारे हिरन।
छल गए मिल धूप-बादल,

खुशबुओं का फटा आँचल।
भागती फिरती अँधेरों से किरन।

खेत-जंगल नेह झरने,
अब लगे हैं रेत भरने।
ब्लेड-से दिन छोड़कर जाते चिरन।

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