(साहित्य-संसार में ऐसे वटवृक्ष विरले ही हैं जिनकी ठंडी छाँव तले नन्हे पौधे जीवन-रस पा सकें। डॉ. सतीश दुबे एक ऐसे प्रखर रचनाधर्मी हैं जिन्होंने प्रायोजित दौर की कुत्सित राजनीति से परे मौन रहकर साहित्य-सृजन को अपने जीवन का शुभ ध्येय बनाया है। असाध्य रुग्णता से संघर्षरत डॉ. दुबे स्वाभिमान, स्नेह, साहस और सौजन्यता की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। अपने साहित्य में मूल्यों और परिधियों को ससम्मान स्वीकारते हुए भी क्रांतिकारी सोच को विलक्षण तेवर के साथ प्रस्तुत किया है। * लेखन में आपका आगमन या जुड़ाव कैसे हुआ? - जन्म के एक वर्ष बाद माँ के प्यार-दुलार से वंचित बचपन पिताजी की दोहरी जिम्मेदारियों के साये में बीता। यह कहना मुश्किल है कि 'पंडिताई' के साथ कृषि का परंपरागत आजीविका का माध्यम तथा पैतृक कस्बा हातोद छोड़कर वे नौकरी पेशा से क्यो जुड़े! हो सकता है अपने समय के 'शिक्षित-व्यक्ति' होने के कारण यह सब रास नहीं आया हो। जब अपनी समझ की आँख खोली जब अपने से उम्र में पाँच-छ: साल बड़ी बहन के साथ, उन्हें इंदौर से दूर मालवा के ही एक गाँव फुलान में राजस्व संबंधी कागजात बनाने वाले दिवानजी के रूप में कार्यरत देखा।
हमारे क्वार्टर्स से कुछ दूरी पर विस्तृत परिसर में जागीरदार की विशाल खाली कोठी थी। यह स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम वर्षों का समय था, संभवत: इसलिए जागीरदार परिवार यहाँ से इंदौर शिफ्ट हो गया हो।
* विधिवत लेखन आपका कैसे शुरू हुआ? - पढ़ाई के लिए पिताजी ने पहले निकट के कस्बे में रह रहे बड़े भाई के यहाँ रखा, वहाँ भौजी को जमा नहीं तो पढ़ाई कर रहे मझले भाई के पास इंदौर रख दिया। भाई साहब कोर्स के अलावा साहित्य की पुस्तकें लाया करते, जिनमें व्यंग्य की भी होती थीं। विद्रूपताओं पर प्रहार करने वाली व्यंग्य की धार ने मुझे प्रभावित किया। सन् 1960 में एक साथ 'नोंकझोंक' (असत्यमेव जयते), 'सरिता' (शनि महाराज के नाम डी.ओ.) तथा स्थानीय 'जागरण' में (साहब का मूड) यानी तीन प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुईं।
इस प्रकाशन-प्रोत्साहन को 1965 में श्री बाँकेबिहारी भटनागर ने साप्ताहिक हिन्दुस्तान में कहानी 'शंकर भगवान गिरफ्तार' प्रकाशित कर चरम पर पहुँचा दिया। कहानी के ठीक सामने वाले पृष्ठ पर आदरणीय शिवमंगलजी 'सुमन' की प्रसिद्ध कविता 'कोई मशाल जलाओ रे बड़ा अंधेरा है...' होने के कारण, 'सुमनजी के साथ छपने' की दोहरी खुशी थी। और यूँ लेखन का व्यवस्थित सिलसिला शुरू हुआ।
* व्यंग्य का शुरुआती लेखन छूट क्यों गया? - छूटा नहीं, अंतर्धारा के रूप में मेरे लेखन की गहराई से जुड़ गया। यदा-कदा लिखी गई व्यंग्य रचनाओं को हमेशा सराहना मिली। यहाँ से 1971 में प्रकाशित साप्ताहिक 'कालभारत' में व्यंग्य स्तंभ 'राम झरोखा बैठिके सबका मुजरा देख' लिखते हुए भी मैंने ऐसा ही अनुभव किया।
* आपकी मुख्य विधा क्या है अर्थात स्वयं को आप किसी विधा में अधिक सहज पाते हैं? - मैं लेखन को शब्दों की आराधना मानता हूँ इसी वजह से अपनी अभिव्यक्ति के लिए मैंने किसी विधा-विशेष की बागड़बंधी नहीं की, बावजूद इसके कहानी या लघुकथा के कैनवास पर अक्षरों के रंग भरने में मुझे अच्छा लगता है।
* सृजन के प्रेरणा बीज आप कहाँ से प्राप्त करते हैं? - अपने ही आसपास का जीवन, उससे जुड़े लोग, देखे-सोचे अप्रत्याशित अनुभव, कोई विशेष घटना या प्रसंग मुझे लिखने के लिए मजबूर करते हैं। कोशिश यह रहती है कि लेखन के केंद्र में कमजोरियाँ, अच्छाई, विवेक, चालाकी, चतुरता के माध्यम से अपनी पहचान देने वाला मनुष्य और उसका जीवन हो।
* आपकी नजर में श्रेष्ठ साहित्य क्या है? - अपने इर्द-गिर्द जहाँ कहीं भी ऐसा कुछ घटित हो रहा है जो मानवीय मूल्यों या मनुष्यता से परे है उसकी तस्वीर सामने लाकर, बेहतर जिंदगी जीने के लिए संघर्षरत व्यक्ति की लड़ाई में संवेदनात्मक-स्तर पर अपनी भागीदारी साबित कर सके।
* समकालीन कहानी में संप्रेषणीयता विलुप्त हो रही है? - लेखन चाहे कहानी, कविता, किसी भी विधा या शैली में हो, संप्रेषणीयता इसकी पहली शर्त है। इसके बाधित होने संबंधी प्रश्न तब उठते हैं जब रचना रचनाकार तक सीमित होकर प्रयोगधर्मी हो जाती है। कहानी चूँकि जीवन की व्याख्या से सीधे जुड़ी होती है, इसलिए सुलझे हुए कथाकार प्राय: इस कूपमंडूक प्रवृत्ति से अपने को बचाने की कोशिश करते हैं।
* पात्रों की निराशा और मनोवैज्ञानिक दुर्बलताओं को सहज स्वीकारने के पीछे क्या कारण हो सकता है? - उम्र के हर पड़ाव पर व्यक्ति संघर्ष से जूझता है। संघर्ष-चेतना उसे आंतरिक-शक्ति से मिलती है। जीवन में प्राय: ऐसे अवसर आते हैं, जब अंतर्निहित सक्रिय ऊर्जा पर निराशा और दुर्बलता की परत हावी हो जाती है। कहानी इस परत की व्याख्या कथ्य और पात्र के माध्यम से करती है। चूँकि पाठक भी प्राय: ऐसी मनोग्रंथियों से ग्रस्त होता है, इसी वजह से वह इसे सहज ग्राह्य कर लेता है।
* समूचा साहित्य परिधियाँ तोड़ने को व्यग्र नजर आ रहा है? यह समय की जरूरत है या हम ही भ्रम में जी रहे हैं? * जब सृजन में सामाजिक मूल्यों को अनदेखा कर दिया जाता है, तब आक्रोश जनित इस प्रकार की चिंताओं का उठना स्वाभाविक है। पर निश्चित मानिए साहित्य कभी मूल्यों की परिधियाँ तोड़ने या अपनी छवि भंग करने का आग्रह नहीं करता।
* 'साहित्य में समाज' और 'समाज से उपजा साहित्य' एक समाजशास्त्री की नजर से क्या भिन्नता पाते हैं, आप इन दोनों में? - पहली स्थिति में सृजन-प्रक्रिया लेखक से समाज की ओर होती है जबकि दूसरी में समाज से लेखक की ओर। ये दोनों समाज और साहित्य के अंतर्सबंधों को महीन सूत से बाँधने वाली वे स्थितियाँ हैं जो साहित्य को समाज का प्रतिबिंब ही नहीं नियामक तथा उन्नायक भी घोषित करती हैं।
इन्हीं के तहत समाज, साहित्य से बदलाव के लिए आगाज करता है और साहित्य, अपने आईने में समाज को उसका चेहरा दिखाता है।
* क्या आज का युवा साहित्य से परहेज करने लगा है? - ऐसा तो नहीं, पर यह सही है कि व्यक्तिगत जद्दोजहद के कारण वह साहित्य से जुड़ नहीं पाता। वैसे देखा जाए तो लेखक, पाठक, संपादक के रूप में जो नई पीढ़ी आ रही है, वह पहले की अपेक्षा अधिक शार्प है। एक सर्वे के अनुसार विभिन्न स्थानों पर लगने वाले पुस्तक प्रदर्शनी या मेलों में सक्रिय भागीदारी युवा पीढ़ी की होती है।
* 'स्त्री विमर्श' के नाम पर जो परिवेश निर्मित हुआ है आपकी नजर में कितना उचित है? - भौतिक वातावरण से प्रभावित होकर 'वस्तु' बनने की प्रवृत्ति ने जहाँ एक ओर स्त्री की छवि को धूमिल किया है वहीं दूसरी ओर प्रतिभा के बल पर विभिन्न क्षेत्रों की उपलब्धियों ने उसे पुरुष की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा प्रदान की है।
* साहित्य में मठाधीशों की परंपरा बढ़ने से सबसे अधिक किसी चीज पर असर पड़ा है? - साहित्य के प्रति आस्था पर।
* साहित्य में 'धर्म प्रतीकों' के इस्तेमाल से आप सहमत हैं? - सकारात्मक होने की स्थिति में।
* आजकल आप क्या लिख रहे हैं? कहानियाँ, लघुकथाएँ, पुस्तक-समीक्षा जैसे रूटीन लेखन के अलावा, योजनाबद्ध कुछ नहीं।
* समकालीन नवागत लेखकों के लिए आपका संदेश? शुभकामनाएँ। वैसे मैं संदेश या आशीर्वाद देने वालों की श्रेणी में अपने को शुमार नहीं करता।