जितनी सहजता से सेल्फी देते हैं उतना ही सहज है मुरालाला का निर्गुण गायन
अपने संगीत और कला में कैसे एकाकार होकर ईश्वर से ‘मिलाप’ और उससे ‘कन्वर्सेशन’ किया जा सकता है, यह लोक गायकी के चेहरे बन चुके कच्छ के गायक मुरालाला से सीखा जा सकता है।
वे कभी स्कूल नहीं गए। न पढ़ना आता है और न ही लिखना। लेकिन अपने इकतारे और मंजीरे के साथ जब वे कबीर के भजन, मीरा के पद, शाह लतीफ भिटाई और बुल्लेशाह के कलाम गाते हैं तो देखकर लगता है कि उन्होंने अपने ‘निर्गुण’ को पा लिया है। मधुर मुस्कान में गाते हुए उनके चेहरे से आध्यात्म के गहरे अर्थ छलकते नजर आते हैं।
जब वे मंच पर नहीं होते हैं तो लोगों के साथ हंस- हंसकर मिल रहे होते हैं, अपनी थाली उठाकर खाना लेकर वहीं खेत की मिट्टी में नीचे बैठकर बहुत ही सहज भाव से खाने लगते हैं। कोई उनसे मिलने आता है तो मुस्कुराकर सेल्फी खिंचवा लेते हैं। उनके चेहरे पर करीने से जमी हुई बड़ी-बड़ी झबरीली मूंछों को देखकर लगता ही नहीं कि वे निर्गुण संगीत कला के वाहक हैं।
हर बार की तरह इस बार भी लुनियाखेड़ी में वे इसी सहज भाव के साथ नजर आए। खेत में खाना खाते और मुस्कुराते सेल्फी देते हुए।
19 फरवरी से मक्सी से कुछ ही दूरी पर स्थित लुनियाखेड़ी में कबीर यात्रा महोत्सव की शुरुआत हुई है। लुनियाखेड़ी से राजगढ, आगर, देवास होते हुए 23 फरवरी को इंदौर में कबीर यात्रा का समापन होगा। पद्मश्री और कबीर भजन गायक प्रहलाद सिंह टिपानिया और सदगुरु कबीर स्मारक शोध संस्थान द्वारा लोक और सूफी संगीत से सजी यह यात्रा आयोजित की जाती है।
इस मौके पर लुनियाखेड़ी में कच्छ के प्रसिद्ध लोक गायक और मस्त मिजाज के सूफी मुरालाला से वेबदुनिया की विशेष चर्चा हुई।
मुरालाला मारवाड़ा बताते हैं कि कबीर यात्रा में शिरकत करना उनके लिए आध्यात्मिक सुख और खोज का साधन है। शायद यही वजह है कि जब वे गाते हैं तो इतने एकाकीकार हो जाते हैं कि महसूस होता है कि मानों वे अकेले ही गा रहे हैं और उन्हें सुनने वाला आसपास कोई नहीं है।
निर्गुणी धारा में आए तो इसी के हो गए
लोक गायकी की अपनी शुरुआत के बारे में मुरालाला बताते हैं कि पहले वे खासतौर से सिंधी सूफी संत और कवि शाह लतीफ भिटाई के कलाम गाते थे। भिटाई सिंधी भाषा और संप्रदाय में बेहद ही लोकप्रिय संत और कवि माने जाते हैं। बाद में जब एक बार वे इस निर्गुणी धारा में शामिल हुए तो फिर इसी के होकर रह गए। बाद में कबीर, मीरा, बुल्लेशाह और संत रविदास समेत कई और संतों के भजन, पद और सबद गाने लगे। गायकी का दायरा बढ़ने के साथ ही वे हिंदी, गुजराती, सिंधी भाषा के गीत, दोहे, भजन और कलाम में भी हाथ आजमाने लगे। मुरालाला ने बताया कि वे राजस्थानी लोक गीतों के साथ ही रामदेव बाबा के भजन भी गाते हैं।
पुरखों को जाता है लोक गायकी का श्रेय
अपने भीतर आई लोक गायकी का श्रेय वे अपने पुरखों को देते हैं। वे बताते हैं कि 8 साल की उम्र में ही उन्होंने गाना शुरू किया था। वे अपने दादा, पिता और चाचा को गाते हुए देखते थे। इनके परिवार के कारण ही कच्छ के गांव जनान में गायन का वातावरण था। मुरालाला बताते हैं कि वे अपने कुनबे की 11वीं पीढ़ी हैं जो इस सूफी संगीत या यूं कहें कि लोक गायकी को आगे बढ़ा रही है। सधे हुए गायन के लिए वे अपने घंटों तक किए गए रियाज को मानते हैं। उनका कहना है कि वे कबीर, मीरा और बुल्लेशाह को सुनने के लिए कई घंटों तक रेडियो पर इंतजार करते रहते थे।
बेटी नंदिनी बढ़ाएगी परंपरा आगे
पिछले करीब 7 से 8 साल से कबीर यात्रा से जुड़े मुरालाला भारत समेत कई देशों में सैकड़ों प्रस्तुतियां दे चुके हैं। लोक गायिकी की इस परंपरा को बरकरार रखने के लिए वे अपनी बेटी नंदिनी को भी साथ रखते हैं और रियाज करवाते हैं। कच्छ के जनान गांव में जन्में मुरालाला ‘कबीर प्रोजेक्ट’ एमटीवी के कोक स्टूडियो और शाह लतीफ भिटाई पोएट्री फेस्टिवल से भी जुड़े हुए हैं। वे अपने प्रदेश के मठों में भी गायन करते हैं। मुराराला यूं तो गुजराती और राजस्थानी शैलियों के साथ ही कई तरह की शैली में गाते हैं, लेकिन उनका ‘वारी जाऊं रे बलिहारी जाऊं रे’, ‘सांवरिया रा नाम हजार, मैं कैसे बांटू कंकूपतरी’ और मन लागो यार मेरो फकीरी में बेहद लोकप्रिय हैं।