महान दार्शनिक अरस्तू के गुरु प्लेटो थे। सिकंदर भी प्लेटो के शिष्य थे। एक बार एक विद्वान दार्शनिक अरस्तू के पास गया और बोला- मैं आपके गुरु से मिलना चाहता हूं। अरस्तू ने कहा- यह असंभव है, वह नहीं मिल सकते। विद्वान ने कहा- क्या अब वह इस दुनिया में नहीं हैं? अरस्तू ने कहा- नहीं, वह कभी मरते ही नहीं। विद्वान ने कहा- मुझे आपकी बात समझ में नहीं आ रही है। अरस्तू ने कहा- दुनिया के सभी मूर्ख हमारे गुरु हैं और दुनिया में मूर्ख कभी मरते नहीं।
अरस्तू ने कहा- आप इसे नहीं समझेंगे। दरअसल मैं हर समय यह मनन करता हूं कि किसी व्यक्ति को उसके किस अवगुण के कारण मूर्ख समझा जाता है। मैं आत्मनिरीक्षण करता हूं कि कहीं यह अवगुण मेरे अंदर तो नहीं है। यदि मेरे भीतर है तो उसे दूर करने की कोशिश करता हूं। यदि दुनिया में मूर्ख नहीं होते तो मैं आज कुछ भी नहीं होता। अब आप ही बताइए कि मेरा गुरु कौन हुआ- मूर्ख या विद्वान। विद्वान हमें क्या सिखाएगा। वह तो खुद ही विद्वता के अहंकार से दबा होता है।
अरस्तू की यह बात सुनकर विद्वान का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह बोले, 'मैं तो आप से कुछ सीखने के लिए इतनी दूर से आया था, लेकिन जितनी उम्मीद लेकर आया था, उससे कहीं ज्यादा सीख लेकर जा रहा हूं।' अरस्तू ने कहा, 'सीखने की कोई सीमा नहीं होती, कोई उम्र नहीं होती और न ही किसी गुरु की जरूरत पड़ती है। इसके लिए तो आत्मचिंतन और आत्मप्रेरणा की आवश्यकता पड़ती है।'