लघु कहानी : मौन व्रत

रमा के मौन व्रत का आज 7वां दिन था। उसने परिवार में सबसे बोलना बंद कर दिया था। दिनभर सबके काम करना और फिर चुपचाप अपने कमरे में चले जाना ही अब उसकी दिनचर्या थी।
 
बीमार सास की सेवा करना उसका ध्येय था किंतु जेठानी की अनावश्यक दखलंदाजी और अपने पति सुरेश की भी अनदेखी उसे अंदर ही अंदर तोड़ रही थी, मगर फिर भी उसे प्रताड़ित करने का कोई मौका घरवाले नहीं छोड़ते थे।
 
आज भी रमा घर का सारा काम निपटाकर अपने कमरे में आई थी। घड़ी देखी तो दोपहर के 4 बजने को थे। उसने एक लंबी उसांस भरी और बिस्तर पर लेट गई। थकान के कारण उसे रोना आ रहा था। कई बार उसके मन में जीवन से वितृष्णा पैदा होती, पर रह-रहकर उसके पिता का चेहरा सामने आ जाता। उनकी समझाइश ऐसे समय में आशा का संचार भी करती। वह फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती। मगर कब तक? 
 
बिस्तर पर लेटे-लेटे रमा को याद आ रहा था, जब रमेश से उसका रिश्ता तय हो रहा था तभी उसके पिता ने उसकी ससुराल वालों से अपनी पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़की को ससुराल में जॉब करने देने की सहमति ले ली थी किंतु बाद में कोई न कोई बहाना बनाकर उसे जॉब नहीं करने दिया गया जबकि उसकी जेठानी जॉब करती थी। रमा के लिए यह भेदभाव असहनीय था किंतु उसने यहां भी परिवार की खुशी की खातिर समझौता कर लिया। वह दिनभर घर का काम करती और परिजन मीन-मेख निकालते।
 
कई दिनों तक उसने चुपचाप सहन किया फिर स्थितियां असहनीय होने लगीं तो प्रतिवाद करना शुरू कर दिया। उसका प्रतिवाद करना भी उस पर भारी पड़ने लगा। अब वह सबकी नजरों में बुरी बन गई। रमेश से कुछ कहती तो वे भी अपने परिजनों की ही तरफदारी करते और रमा को भला-बुरा कहते। यही कारण रहा कि रमा ने सबकी भलाई के लिए मौन व्रत धारण कर लिया लेकिन यह स्थिति भी परिजनों को रास नहीं आई।
 
रमा सोच रही थी कि आखिर वह करे तो क्या करे। प्रतिवाद करने पर भी विवाद होता है और मौन रहने पर भी असामान्य स्थितियां ही रहती हैं। ऐसे में उसे अब अपना भविष्य अंधकार में लगने लगा।
 
वह कोई ठोस निर्णय करना चाहती थी कि तभी रमेश ने कमरे में प्रवेश किया और बोला- रमा आखिर इतनी चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो? आज एक सप्ताह होने जा रहा, तुम्हारी चुप्पी को? ऐसे कैसे और कब तक चलेगा?
 
अपने पति की बात सुनकर रमा का धैर्य छूट गया, वह बोली- आखिर मैं क्या करूं? बोलती हूं तो सबको बुरी लगती हूं, चुप रहती हूं तब भी आप सबको तकलीफ होती है। आप ही बताइए कि मैं क्या करूं?
 
तब रमेश ने स्नेह जताते हुए कहा- 'रमा, अब मुझे सब समझ आ गया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। मैं भी अपने स्वभाव में बदलाव लाऊंगा और जो सही होगा उसका ही साथ दूंगा। अन्याय का प्रतिवाद ठीक है, पर इस तरह मौन तुम्हारे मन और स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। किसी के लिए भी ठीक नहीं। चलो अब अपना मौन व्रत तोड़ो और मेरे साथ बाजार चलो। कुछ जरूरी सामान लाना है।'
 
रमा मुस्कुरा दी और यह कहते हुए तैयार होने चली गई कि 'रमेश, मुझे सिर्फ तुम्हारा प्यार और साथ ही तो चाहिए।' आज रमा को अपनी मौन शक्ति सुखद लग रही थी।
 

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