लघुकथा : दावत

- आलोक वार्ष्णेय

शादियों और दावतों का माहौल था। इसी का तो इंतजार रहता था उसे। कितने दिन हुए थे दावत खाए हुए। अब तो पूरे 3 महीनों तक मजे रहेंगे। कभी इस गेस्ट हाउस तो कभी उस गेस्ट हाउस। सोचकर ही बहुत प्रफुल्लित था वो।

दावत उड़ाते हुए उसका दिमाग बस लगातार यही सोच रहा था। उसके हाथ थम नहीं रहे थे। आस-पास के लोग भी उसे अजीब नजरों से देख रहे थे, मगर वो इन सब बातों से बेखबर अपनी दावत उड़ा रहा था।

...और फिर क्यूं न वो दावत का मजा लेता आखिर इतने दिनों बाद तो उस भिखारी को कुछ अच्छा खाने को मिला था। और इसी उमंग में वो उन झूठी पत्तलों से खाना बटोरकर खाता जा रहा था और ईश्वर को इस मौके के लिए धन्यवाद देता जा रहा था।



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