कटते विशाल वृक्षों की पीड़ा कई माध्यमों से पढ़ने में आती रही है। मार्ग चौड़ीकरण व विकास के नाम पर कई पेड़ों की बलि चढ़ी उनका दोष इतना था कि वे मार्ग के बीच में आ रहे थे।
पर कुछ दिन प्रताप स्मारक से आगे आते हुए मैंने देखा सड़क के दोनों ओर फल, सब्जी व अन्य कई वस्तुओं जैसे पुराने कपड़े, गमले आदि के ठेले, व हाथ गाड़ियाँ खड़ी थीं और थोड़ी-थोड़ी दूर एक मेजनुमा पेड़ के ठूँठ पर कहीं पानी की मटकी तो कहीं बच्चों के टूटे खिलौने तो कहीं पुराने कपड़े शाल आदि रखे थे।
इन सबके बीच जो प्रमुख था जिसने मुझे आश्चर्य में डाला वो थी उन पेड़ों की जिजीविषा हर पेड़ के चारों ओर झाड़ियों से झुरमुट उग आए थे कई छोटी टहनियाँ पत्तियों से लदकर विकासोन्मुखी मानवीय सभ्यता को ठेंगा दिखाती अपनी ही सहोदर लकड़ी की कुल्हाड़ी को चिढ़ा रही थी।