गीता जयंती : वह घोष पांचजन्य का

- चित्रांश वाघमारे

 
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परिकल्पना जब धर्म की

अवधारणा सत्कर्म की

जब पा रही विस्तार थी

जग में हुई साकार थी।

वह घोष पांचजन्य का,

गाण्डीव की टंकार थी।।

 

दृढ़ धर्म के कोदंड पर

चढ़ पापियों के नाश को,

शर छूटकर नभ में उड़ा-

वह धर्म का उद्घोष था।

 

जब रुंड से कट मुंड-

खल के, भूमि पर लुंठित हुए

संतोष धरणी को नहीं,

वह धर्म को संतोष था।

जब गूंजती रणक्षेत्र में,

दृढ़ धर्म जय-जयकार थी।।

वह घोष पांचजन्य का,

गाण्डीव की टंकार थी।।

 

इक अमर करवाल जब

चमकी, अरावलि श्रृंग पर,

एक चेतनता मिली,

सं‍त्रस्त से मेवाड़ को।

रण बीच में थे कूदते,

प्रणवीर वे रण बांकुरे-

लेने यवन से स्वयं के,

स्वाधीनता अधिकार को।

रण बीच राणा की प्रखर-

जो वज्र-सी हुंकार थी।।

वह घोष पांचजन्य का,

गाण्डीव की टंकार थी।

 

होंगे विनायक याद तुमको

सिंधु को मथकर जिन्होंने

जलधि के दृढ़ वक्ष पर

लिखा नवल ‍इतिहास था।

ये लौह-सांकल भी भला-

क्या बांध पाएंगी मुझे,

यह अम्बुधि देगा शरण,

उनका अडिग विश्वास था।

उर फाड़कर उस जलधि का,

फूटी प्रखर ललकार थी।।

 

वह तत्व क्या है, जो मनुज में

स्नायुओं में रक्त के संग,

प्रज्वलित, भीषण, प्रदाहक-

अग्नि को भरने लगा।

जब कभी पौरूष शिथिल-

संधान शर का त्याग देता

कौन फिर संधान ‍शर का

स्वयं ही करने लगा।

यह क्लीव मानव जाति को

हिन्दुत्व की ललकार थी।।

वह घोष पांचजन्य का,

गाण्डीव की टंकार थी।।

 

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