संध्या का अर्थ है मिलन या संधि काल, जो दिन और रात के मिलन बिंदु को दर्शाता है। यानि जहां पर दिन और रात मिलते हैं वह समय और जहां पर दिन और दोपहर मिलते हैं वह समय संध्या का होता है। इस प्रकार यदि सूक्ष्म रूप से देखें तो 24 घंटे में ऐसा आठ बार होता है जिसे अष्ट प्रहर कहते हैं। इस अष्ट प्रहर में से उषाकाल, मध्यांन्ह काल और संध्या का को ही त्रिसंध्या कहते हैं। त्रिसंध्या को त्रिकाल संध्या या संध्योपासन भी कहते हैं। त्रिकाल का अर्थ है तीन समय- सुबह, दोपहर, और शाम।
आठ प्रहर: आरती का समय से ज्यादा प्रहर से संबंध होता है। 24 घंटे में 8 प्रहर होते हैं। दिन के चार प्रहर- 1.पूर्वान्ह, 2.मध्यान्ह, 3.अपरान्ह और 4.सायंकाल। रात के चार प्रहर- 5. प्रदोष, 6.निशिथ, 7.त्रियामा एवं 8.उषा। एक प्रहर तीन घंटे का होता है। पूर्वान्ह काल में मंगल आरती और सायंकाल में संध्या आरती होती है।
त्रिकाल संध्या का समय:
1. उषाकाल: सूर्योदय के कुछ समय पहले का काल।
2. मध्यान्ह: दोपहर 12 बजे के आसपास का समय।
3. सायंकाल: सूर्यास्त के समय से शुरू होकर रात होने तक का समय होता है।
कैसे करते हैं त्रिकाल संध्या?
1. त्रिकाल संध्या में आचमन, प्राणायाम, अंग-प्रक्षालन तथा बाह्यभ्यांतर शुचि की भावना करने का विधान होता है।
2. सबसे उषाकाल में स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
3. पूजा स्थान पर कुशा पर बैठकर आचमान लें। फिर प्राणायाम करें।
4. गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करें।
5. इसके बाद अपने इष्ट देव का ध्यान या पूजा करें।
6. कुछ लोग संधिकाल में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।
7. कुछ इस दौरान लोग पूजा-आरती और कीर्तन को महत्व देते हैं।
8. संध्योपासना के चार प्रकार है- (1)प्रार्थना (2)ध्यान, (3)कीर्तन और (4)पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।
संधिवंदन क्यों जरूरी?
संधिकाल में अच्छी और बुरी शक्तियां सक्रिय होने के कारण इस काल में निम्नलिखित बातें निषिद्ध बताई गई हैं। संधिकाल में भोजन, संभोग, जल, निद्रा, शौच, वार्ता, विचार, यात्रा, क्रोध, शाप, शपथ, लेन-देन, रोना, शुभ कार्य, चौखट पर खड़े होना आदि निषेध माने गए हैं।
त्रिकाल संध्या से लाभ:
1. शारीरिक और मानसिक ताप मिट जाते हैं।
2. जीवन में सुख, शांति और समृद्धि बढ़ती है।
3. सभी तरह के ग्रह दोष, कालसर्पदोष और पितृदोष दूर होते हैं।