मूक-बधिरों की 'आवाज' बने ज्ञानेन्द्र पुरोहित

कहते हैं अगर इच्छाशक्ति मजबूत हो तो हर काम आसान हो जाता है। ऐसी ही कहानी है ज्ञानेन्द्र पुरोहित की जिन्होंने समाज के ऐसे तबके को अपनी आवाज दी, जो न तो मुंह से बोल सकता है और न कानों से सुन सकता है। इन लोगों की डगर पथरीली है और भविष्य अंधकारमय। पुरोहित ने इन लोगों का हाथ बेहद मजबूती से थामा और समाज की मुख्यधारा में इन्हें लाने का बीड़ा उठाया। 
 
 
ऐसे हुई शुरुआत :  पुरोहित के भाई आनंद भी मूक-बधिर थे और ट्रेन में यात्रा के दौरान किसी ने उन्हें धक्का दे दिया। हादसे में उनकी मौत हो गई। पुरोहित को इस घटना ने आहत किया। उन्हें इस बात का मलाल था कि लोग उनके भाई को अकसर चिढ़ाते थे। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे भाई की तरह हजारों मूक-बधिर भाई-बहनों की मदद करेंगे। इसके बाद उन्होंने न सिर्फ साइनिंग लेंग्वेज (सांकेतिक भाषा) सीखी बल्कि एमएसडब्ल्यू भी किया और देश-विदेश के मूक-बधिरों पर अध्ययन किया। इस दौरान कई सवालों से उनका सामना हुआ, नए-नए विचार आए और उन्होंने मूक-बधिरों के जीवन की कठिनाइयों को दूर करने के बीड़ा उठाया और इस दिशा में कई कार्य किए जो माइल स्टोन बन गए। 
 
मूक-बधिरों के लिए राष्ट्रगान : जब राष्ट्रगान होता है तो सभी लोग सावधान मुद्रा में खड़े होकर राष्ट्रगान गाते हैं। एक तबका ऐसा भी था जो न तो राष्ट्रगान सुन सकता था और न इसे गा सकता था। आजाद भारत में रहने वाले इन लोगों को हमेशा इस बात का दर्द सालता कि वे राष्ट्रगान नहीं गा सकते। पुरोहित ने इन लोगों की समस्या को समझा और साइनिंग लेंग्वेज में राष्ट्रगान कंपोज किया। इसके बाद उन्होंने इसे मान्यता दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया। 2001 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात कर मूक-बधिर लोगों के आग्रह को उन तक पहुंचाया और आखिरकार मूक-बधिर लोगों को भी साइनिंग लेंग्वेज में राष्ट्रगान का हक मिल गया।
 
उम्मीद लेकर आते हैं, हंसते हुए जाते हैं : एडमिशन से लेकर नौकरी तक परेशानियों से जूझ रहे इन लोगों की मदद के लिए ज्ञानेंद्र पुरोहित हमेशा तत्पर नजर आते हैं। चाहे नौकरी हो या शिक्षा इन बच्चों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे अपनी बात नहीं रख पाते और इन्हें मिलने वाली सीट पर अन्य वर्गों (दृष्टि बाधित और अस्थि बाधित) में आरक्षित बच्चों को प्रवेश दे दिया जाता है। 
 
इनकों हक दिलाने के‍ लिए पुरोहित न सिर्फ अधिकारियों से भिड़ जाते हैं बल्कि तब तक पीछा नहीं छोड़ते जब तक पीड़ित को उसका हक न दिला दें। हजारों मूक-बधिर पुरोहित के पास अब तक उम्मीद लेकर आए और काम होने के बाद हंसते हुए लौटे। 
 

वीडियो : धर्मेंद्र सांगले
विशेष थाना : मूक-बधिरों का जब भी समाज में शोषण होता तो वे अपनी बात किसी के भी सामने नहीं रख पाते। मारपीट, छेड़छाड़ तो ठीक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के शिकारों की भी कोई सुनवाई नहीं होती। पुरोहित ने ही मूक- बधिरों की लड़ाई लड़ते हुए उनके लिए देश में इन लोगों के लिए इंदौर के थाना तुकोगंज में एक विशेष सेल प्रारंभ करवाई। इस सेल में न सिर्फ प्रदेश भर के मूक- बधिर लोगों की शिकायतें दर्ज की जाती हैं बल्कि उसे संबंधित थानों में भिजवाकर समय-समय पर उसका फालोअप भी लिया जाता है। बाद में न्यायालय तक इंसाफ की लड़ाई लड़ी जाती है। अब तक यहां 180 शिकायतें दर्ज की जा चुकी हैं इनमें से 15 मामलों में आरोपियों को सजा भी दिलवाई जा चुकी है। इसी तरह के प्रकोष्ठ अब ग्वालियर, जबलपुर और रीवा में भी हैं। अब तो सामान्य थानों में भी वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए एफआईआर दर्ज कर ली जाती है।
 
अधिकारों की लड़ाई : पुरोहित का कहना है कि सामान्य लोगों को मूक-बधिरों के अधिकारों की जानकारी नहीं है। कई बार जब ये किसी कॉलेज में एडमिशन के लिए या नौकरी के लिए जाते हैं तो उनसे सवाल पूछा जाता है कि आपकी डिग्री में छह की बजाय चार ही विषय क्यों हैं? तो वे जवाब नहीं दे पाते। सीटी बजते ही दौड़ शुरू हो जाती है लेकिन मूक-बधिरों को पता ही नहीं चलता। वहां साइनिंग लेंग्वेज में समझाने वाला कोई नहीं रहता। आर्ट्स में प्रवेश मिल जाता है लेकिन साइंस और कॉमर्स में क्यों नहीं? नौकरियां तो यहीं ज्यादा हैं। आरक्षण में व्यवस्था है लेकिन जब नौकरियों के लिए जाते हैं तो कहा जाता है कि आप कैसे करेंगे? सवाल यह कि अगर नहीं कर सकते तो आरक्षण क्यों दिया? यह अधिकारों की लड़ाई है। स्कूलों में सांकेतिक भाषा के शिक्षकों के मुद्दे पर भी लंबी लड़ाई लड़ी हाईकोर्ट तक गए, पहले सिंगल बैंच और फिर डबल बैंच में जीते। इससे हजारों मूक-बधिरों की नौकरी का रास्ता साफ हुआ। अब मध्यप्रदेश में मूक बधिर भी अब लोकसेवा आयोग की परीक्षा देकर डिप्टी कलेक्टर बन सकते हैं। वह चाहते हैं कि मूक-बधिर बच्चे भी एक दिन कलेक्टर, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनें।  
 
आजादी के मायने : मूक-बधिरों को आज भी यह नहीं पता कि आजादी क्या होती है। पेरेंट्स इन्हें आज भी बराबरी का दर्जा नहीं देते। यहां गाड़ी चलाने का लाइसेंस नहीं मिलता, अमेरिका में मिलता है। हम दूसरे ग्रह से नहीं आए हैं। आजादी हमारे लिए 15 अगस्त तक ही सीमित है। हर साल स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं लेकिन आजादी के 68 सालों बाद भी हमें हमारे अधिकार नहीं मिले। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कहकर हमें टरका दिया जाता है, मैं कहता हूं नहीं हुआ तो क्या हुआ, कभी तो होगा और आज क्यों नहीं। अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बाद है जब पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने मूक-बधिर बच्चों से बात की थी और उनके अनुभव साझा किए। 
 
युवाओं के लिए संदेश : हमारे देश में मूक-बधिरों का भी अच्छा मेन पॉवर है। इसका हम बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं। युवाओं से मुझे काफी उम्मीदें हैं। उनमें बहु‍त धैर्य है जो पुराने लोगों में नहीं था। आज कई लोग मूक-बधिरों को रोजगार दे रहे हैं, इससे उनमें उम्मीदों का संचार हो रहा है।
 
"इस स्वतंत्रता दिवस पर हम बता रहे हैं भारत के ऐसे 'हीरोज' के बारे में जो न तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं न ही वर्दीधारी सिपाही। ये हैं हमारे आपके जैसे आम लोग, जिन्होंने अपनी पहल से स्वतंत्रता सेनानियों के 'सपनों के भारत' को साकार बनाने की मुहिम छेड़ रखी है। क्या आप भी जानते हैं किसी ऐसे 'हीरो' के बारे में? यदि हां तो हमें फोटो सहित उनकी कहानी [email protected] पर भेजें। चयनित कहानी को आपके नाम सहित वेबदुनिया पर प्रकाशित करेंगे।"

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