शुभ को भुलाकर लाभ कमाने की नीति

- राजेंद्र सिंह

ND
भारत की पर्यावरण नीति का दस्तावेज पढ़ें तो आपको स्पष्ट तौर पर लगेगा, यह नीति तो भारत के शुभ को भूल कर लाभ कमाने वाली ही नीति है। पर्यावरण मंत्री और पर्यावरण सचिव दोनों मिलकर भारत में विदेशी कंपनियों को बुलाने में ही जुटे हैं। ये कंपनियाँ तो भारत का शुभ नहीं चाहती हैं। उन्हें केवल लाभ चाहिए।

समुद्र वसने देवी पर्वतः स्तन मंडले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम्‌ पादस्पर्शक्षमस्व मै॥
प्रातः उठते ही धरती पर पैर रखने से पूर्व कहते हैं, 'हे धरती माँ पहाड़ तेरे वक्षस्थल हैं' जिनसे हमें दूध का पोषण मिलता है। तू हमें बनाती और पोषती है। तेरे ऊपर हम पैर रखते हैं। हम तुमसे क्षमा चाहते हैं। जिस देश का समाज धरती पर पैर रखने के लिए भी क्षमा माँगता है। उसी समाज ने आज धरती का पेट फाड़कर उसमें से सब कुछ निकालना शुरू कर दिया। खैर हम माँ के स्तन से दूध निकालते ही हैं। जब तक हम अपनी जरूरत पूरी करने के लिए निकालते हैं तब तक यह सब अच्छा माना जाता है। आज हमने भोगी बनकर दूध के साथ माँ का रक्त निकालना शुरू कर दिया है। इसके लिए ही नई पर्यावरण नीति का प्रारूप माँ का रक्त निकालने वाला है। इसी ने वन भूमि में खनन को बढ़ावा देने का रास्ता खोला है। हमारी ऐसी पर्यावरण नीति के चलते पर्यावरण दिवस मनाने का क्या औचित्य है?

पर्यावरण दिवस हो या पृथ्वी शिखर सम्मेलन हो। पर्यावरण भवन हो या पर्यावरण मंत्री का दफ्तर, आज मानव और प्रकृति के रिश्तों का संतुलन बनाए रखने की चिंता किसी को भी नहीं है। आज तो पर्यावरण मंत्रालय को भारत के शुभ की चिंता नहीं है। लाभ की ही चिंता है। उसी को कमाने में सब लगे हैं।

भारत की पर्यावरण नीति का दस्तावेज पढ़ें तो आपको स्पष्ट तौर पर लगेगा, यह नीति तो भारत के शुभ को भूलकर लाभ कमाने वाली ही नीति है। पर्यावरण मंत्री और पर्यावरण सचिव दोनों मिलकर भारत में विदेशी कंपनियों को बुलाने में ही जुटे हैं। ये कंपनियाँ तो भारत का शुभ नहीं चाहती हैं। उन्हें केवल लाभ चाहिए। फिर पर्यावरण की रक्षा कैसे होगी? भारत की प्राकृतिक आस्था से ही पर्यावरण की रक्षा होगी। व्यापारी पहले अपने उद्योग और व्यापार में शुभ-लाभ का बराबर खयाल रखता था। शुभ का अर्थ सबका भला। मानव धरती, प्रकृति किसी के साथ हिंसा नहीं हो। बिना किसी को कष्ट दिए ही लाभ कमाना। लाभ भी मर्यादित होकर कमाना। भारत की व्यापार संहिता में लिखा है। 'सौ पर दो कमाना' दो का दसवाँ हिस्सा सबके शुभ पर खर्चना (धर्मादा) कहलाता है। धर्मादा में सबको पीने के लिए पानी और जीने में समृद्धि के लिए गोवंश में सुधार पर खर्चना लिखा था। उसी को ये अपना धर्मादेश मानकर व्यापार किया करते थे। उद्योग का सबके शुभ का आधार बनना भारत की महानता थी। इसीलिए भारत के उद्यमी महाजन कहलाते थे। दुनिया में उद्यमी को शोषक-दोषक कहते हैं, क्योंकि ये प्रदूषण करके प्रकृति को दोषक बनाते थे। उद्योग में काम करने वालों तथा प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करके ये शोषक बनते थे। हमारे उद्योग, व्यापारी लंबे समय तक शुभ-लाख का संतुलन बनाए रखकर पर्यावरण को नहीं बिगड़ने देते थे। ये प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते बिगाड़ने वाले नहीं थे। प्रकृति को बनाने वाले थे।

हमने अपनी जीवन पद्धति में एक जीवन आदेश माना था। हम प्रकृति से जितना लें, उतना ही श्रम करके अपने पसीने से प्रकृति को लौटाएँ। प्रकृति के साथ हमारा लेन-देन बराबर रहेगा तो हम सुख, दुःख, शांति और समृद्धि से जिएँगे। हमारी भूसंस्कृति और पारिस्थितिकी शाश्वत बनी रहेगी।

ईषावास्यमिदं सर्वं यत्किन्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्‌॥
अर्थात प्रकृति में जो कुछ है, वह ईश्वर का दिया हुआ है। अतएव उसका उपयोग त्याग भावना से ही करना चाहिए। साथ ही साथ श्रम करें, मेहनत नहीं टालें। मेहनत से बचने वाले व्यक्ति को हम चोर कहते हैं।
ईष्टान्‌भोगान्‌हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायेभ्यो यो भृड्क्ते स्तेन एव सः॥

पर्यावरण की चिंता आज उक्त के विपरीत चारों तरफ दिखती है। इससे मुक्ति के उपाय भी केवल विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को एक उत्सव मानकर ढूँढे जाते हैं। अब पर्यावरण दिवस मनाकर ही पर्यावरण संकट के समाधान के रास्ते खोजे जाते हैं। इन दिवसों को मनाकर हम क्या पर्यावरण संकट और बढ़ा रहे हैं? खान-पान प्लास्टिक की प्लेटों में हो जाता है। वातानुकूलित बड़े हॉलों में बैठकें, उनमें बड़ी-बड़ी ग्लोबल वार्मिंग, क्लाईमेंट चेंज जैसी चर्चाएँ करके वापस घर चले जाते हैं। फिर वही प्रकृति से दूर जीवन पद्धति अपनाते हैं। जहाँ-तहाँ प्राकृतिक क्रोध की देन 'बाढ़ सुखाड़' की चिंताएँ कर लेते हैं। 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाकर जल संकट पर आँसू बहा लेते हैं। नदियों के प्रदूषण से भू-जल प्रदूषित हो रहा है। इसके उपाय भी कर लेते हैं। नदियाँ प्रदूषित नहीं हों। बाढ़, सुखाड़ नहीं आए। भू-जल भरा रहे, लेकिन इस दिशा में आज कोई काम नहीं करता है।

पर्यावरण का संकट मस्तिष्क से आरंभ जीवन पद्धति और प्रकृति के साथ हमारे व्यवहार को बिगाड़ रहा है। इसको बिगाड़ने में हमारी सरकारों का नेतृत्व हमारे समाज को मिला है। आज पर्यावरण दिवस पर हम अपनी स्वयं की पर्यावरण की समझ और प्रकृति के रिश्तों का अहसास करें। फिर प्रकृति का बिगाड़ किए बिना 'जीओ और जीने दो' को मानकर जल, जंगल, जमीन और जंगलवासियों को जोड़ें। सबका साझा संवर्द्धन करना है, तभी पर्यावरण सुधरेगा। पर्यावरण राहत के लिए भारतीय आस्था को जगाना होगा। तभी विश्व पर्यावरण दिवस मनाना सार्थक होगा।

(लेखक पर्यावरणविद् हैं। आपने देश के जलस्रोतों पर विशेष अध्ययन एवं शोध किया है।)

वेबदुनिया पर पढ़ें