संवेदनशून्य होता हमारा समाज

- अनुपम मिश्

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पर्यावरण दिवस पर ढेर सारे लेख लिखे जाते हैं, प्रदर्शनियाँ लगती हैं, भाषण होते हैं, कहाँ क्या-क्या बिग़ड़ा है, इसकी सूची भी बनती है। लेकिन फिर भी बाकी सालभर इसकी सूची को कम करने की तरफ शायद ही ध्यान जाएगा। जाने-अनजाने सूची को ब़ढ़ाने का काम होता रहता है। जब से पर्यावरण दिवस मन रहा है यानी 1972 से आज तक देश के पर्यावरण को सुधारने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह चौतरफा दिन-दूना रात-चौगुना ही बिग़ड़ा है और इस पर टिकी आबादी का जीवन पहले से ज्यादा खतरे में प़ड़ता जा रहा है।

इसलिए अब यह सारा मामला प्रदूषण का, पर्यावरण का या संवर्द्धन का उतना नहीं बचा है, जितना कि राजनीति, विकास नीति का और उन तमाम योजनाओं का बनता जा रहा है जो देश को आधुनिक और समृद्ध बनाने के लिए रची जा रही हैं। फिर भी ये देश की आबादी के एक ब़ड़े भाग को पिछ़ड़ा बना रही हैं और न जाने कितने लोगों को पचाती जा रही हैं। सचमुच आज पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे विभागों, सरकारी, गैर-सरकारी विशेषज्ञों को, काम करने वालों को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि देश का बिग़ड़ता पर्यावरण कितने लोगों को उखा़ड़ रहा है। विकास करने वालों को तो विकास की कीमत चुकानी ही प़ड़ेगी। कीमत चुकाने वाले कितने लोग हैं, और ये क्या कीमत चुका रहे हैं इसको लोग जानबूझ कर समझना नहीं चाहते। समझने की कोशिश करने की गलती कर बैठें तो विकास का पटरा बैठ जाएगा। विकास की कीमत का एक छोटा लेकिन मोटा अंदाजा 'भोपाल गैस कांड' ने दिया था। कोई 5000 लोग इस हादसे के पहले छः दिन में मारे गए, छः हफ्तों में कोई एक लाख लोग अपना घर-बार छो़ड़ यहाँ से वहाँ भागते फिरे। छः महीने में पता चला कि कोई एक लाख लोगों को बस किसी तरह घुट-घुटकर जिंदा रहना है और बाद में खबरें आई थीं उस पी़ढ़ी की, जो भोपाल गैस कांड के समय पेट में थीं, गैस कांड के बाद जन्मे बच्चों में कोई 200 मरे हुए थे, 400 जन्म के कुछ समय बाद मर गए। जो जिंदा थे वे भी स्वस्थ नहीं हैं।

ऐसा नहीं था कि भोपाल से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं हुईं, पर वे सब उन आँखों को नहीं दिखती थीं, जो विकास के सावन में अंधी हो चुकी हैं। फिर भी इनके कानों में बिग़ड़ते पर्यावरण का कुछ शोर तो जाता ही है। इसलिए ये सक्रिय हो उठते हैं, देश का पर्यावरण बचाने के लिए। पर्यावरण के विभाग खुलते हैं, पर्यावरण मंत्रालय बनते हैं, ढेरों कायदे-कानून लिखे जाते हैं, संवर्द्धन की अनेक योजनाओं का उद्घाटन होता है। दिवस मनाए जाते हैं, पर साल के दिन ज्यों के त्यों रहते हैं।

आधुनिक विकास आज एक राजयक्ष्मा, राजयोग और आसान शब्दों में कहें तो तपेदिक की बीमारी की तरह लोगों को तिल तिल खा रहा है, गला रहा है, कभी-कभी ज्यादा हल्ला मच जाए तो विकास वाले उदारतापूर्वक इस रोग का इलाज करने के लिए राजवैद्य नियुक्त कर देते हैं। हमीं ने दर्द दिया हमीं दवा देंगे। ये दवाएँ कैसी हैं? भोपाल कांड के बाद आस्था अभियान, पूरे देश में वनों को बर्बाद करने के बाद वनीकरण, सामाजिक वानिकी के नाम पर सफेदे (यूकेलिप्टस) के पे़ड़ लगाना? देशभर की नदियों को सारे शहर और उद्योग अपना कचरा ठिकाने लगाने का सबसे सस्ता माध्यम मान चुके हैं। इसके खिलाफ कुछ हल्ला होने लगे तो केंद्रीय और राज्य स्तरीय जल प्रदूषण निराकरण और नियंत्रण बोर्ड बन जाते हैं।

प्रायः विरोधी दल को किसानों की समस्याएँ साफ दिखने लगती हैं, लेकिन जब वही दल सत्तारू़ढ़ होता है तो वही इन बाँधों को वरदान कहने लगता है। लेकिन कोई भी ऐसी योजनाओं को अभिशाप कहने वाली कुर्सी पर बहुत नहीं बैठना चाहता। इस आधुनिक माने जाने वाले विकास के कारण प्रकृति पर प्राकृतिक साधनों पर, और इन साधनों पर आबादी के जिस ब़ड़े भाग का पूरा जीवन टिका है, उस पर चारों ओर से हमला हो रहा है। पहला हमला हर तरह के उद्योग के भीतर काम करने वाले मजदूर पर है। दूसरा हमला उस उद्योग से निकलने वाले कचरे, गंदे पानी, गंदी हवा का आसपास के नागरिकों पर है। तीसरा हमला उन उद्योगों में बन रहे तैयार माल के उपभोक्ताओं पर है। चौथा हमला उन असंख्य लोगों पर है, जो वहाँ बसे हैं जहाँ से इन उद्योगों को चलाने के लिए कच्चा माल आता है।

पर्यावरण पर इस हमले में कुछ संगठन तो शुद्ध 'रेडक्रॉस' किस्म के हैं। वे घायलों की दवा-दारू और मरहम पट्टी करने में लगे हैं। पर यह काम भी अब पूरी तरह से नहीं हो पाता। पहले यह काम पर्यावरण के लिए काम कर रही कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने निभाया। पिछले दौर में इन छोटे-छोटे संगठनों ने विकास के कारण बिग़ड़ रहे पर्यावरण की कीमत चुका रहे लोगों का सवाल उठाया। शायद इससे कुछ ताकत भी संगठित होती दिखी, पर फिर अचानक देश की सबसे ब़ड़ी अदालत के दरवाजे गरीब के लिए अचानक खुल गए। तब से पी़िड़तों के ज्यादातर मामले स्थानीय स्तर पर संगठित होने के बदले ब़ड़ी कचहरी में आने लगे। उन दिनों इनमें सबसे ज्यादा नाम पाया था रतलाम के एक मुकदमे ने।

रतलाम के वार्ड नंबर 12 के नागरिकों ने नगरपालिका की घोर उदासीनता के कारण बिग़ड़ रहे पर्यावरण को लेकर दिल्ली की अदालत में न्याय पाने के लिए घंटा बजाया था। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर और न्यायमूर्ति चिन्नापा रेड्डी ने इस मामले पर अपना अमर फैसला सुनाया और एक टुच्ची नगर पालिका समेत महान मध्यप्रदेश को भी दोषी पाया। अपने ऐतिहासिक क़ड़े फैसले में उन्हें जोरदार ढंग से लता़ड़ा और तुरंत इस अन्याय को ठीक करने के आदेश दिए। यह 1980 का किस्सा है। कई लोगों को लगा कि अब उनके पास प्रदूषण फैलाने वालों को पीटने के लिए सुप्रीम कोर्ट की छ़ड़ी आ गई है। इसके बाद तो सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मुकदमों का ढेर लग गया। मंदसौर में स्लेट-पेंसिल की छोटी-छोटी फैक्टरियों में पेंसिल काटने से उ़ड़ने वाली धूल के कारण मर रहे मजूदरों, ब़ड़े-ब़ड़े बाँधों, बिजलीघरों में विस्थापित हो रहे लोगों, प्रदूषित नदियों के किनारों पर बसे नागरिकों की आवाज वहाँ उठाई गई। लेकिन क्रांतिकारी और ऐतिहासिक माने गए फैसलों का अमल एक दूसरा ही दुखद किस्सा है। रतलाम में आज परिस्थितियाँ पहले से भी भयानक हो गई हैं।

भोपाल गैस हत्याकांड से पहले हमारे देश में कभी भी यह बहस नहीं उठ पाई कि की़ड़ेमार दवाएँ सचमुच जरूरी हैं या नहीं। आधुनिक विकास हमारी अच्छी से अच्छी पद्धति या चीज के बारे में हमारे मन में सेंध लगा देता है, चाहे वे पीने के पानी जुटाने वाले परंपरागत तरीके हों, घर में बनाने वाली परंपरागत सामग्री हो, बेरोकटोक ठीक फसल देने वाले बीज हों, बाजार पर न निर्भर रहने वाली पूरी कृषि पद्धति हो, माँ के स्तन का दूध हो, सब चीजों के बाजारू विकल्प दिए बिना विकास नहीं होता और ऐसा विकास कुछ लोगों के लिए सोने के सुनहरी फीतों में लिपटा हुआ है। वे इन फीतों को खोलते जाते हैं और लाभ कमाते जाते हैं।

यही आधुनिक विकास की सबसे ब़ड़ी जीत है। दूसरी तरफ इस विकास में हर तरफ छिपे धोखे और खतरे से बचने की भी कोशिश हो पाए, इसके लिए कुछ लाल फीते बाँध दिए जाते हैं, इन लाल फीतों को न खोलने की कोशिश में वे सभी लोग लगे हैं तो इनके सुनहरे फीते खोल रहे हैं। इसमें देश का नेतृत्व, नौकरशाही, विज्ञान और तकनीक के लोग, सामाजिक संस्थाएँ, शिक्षण संस्थाएँ आदि हैं। कहीं तो कोई उँगली उठाए इस विकास पर और उठाना भी चाहे तो एक दिवस दिया जा सकता है। 364 दिन नहीं।
(लेखक पर्यावरणविद् हैं।)

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