पर्यावरण आदोलन की चुनौतियाँ

- सुनीता नाराय

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भारत का पर्यावरण आंदोलन इस देश की अन्य बहुत-सी बातों की तरह ही विरोधाभासों एवं जटिलताओं में संतुलन बनाकर चलने की दरकार रखता है : अमीर और गरीब के बीच संतुलन, मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन। वैसे भारत का पर्यावरण आंदोलन एक मानी में विशिष्ट है और इसी विशिष्टता में इसके भविष्य की कुंजी है। अमीर देशों के पर्यावरण आंदोलन तब शुरू हुए, जब वे धन-संपत्ति के निर्माण काल से गुजर चुके थे और अपशिष्ट निर्माण के काल से गुजर रहे थे।

अतः वे अपशिष्ट नियंत्रण की बात करने लगे लेकिन वे अपशिष्ट निर्माण के ढाँचे को ही परिवर्तित करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत भारत में पर्यावरण आंदोलन धन-संपत्ति के निर्माण काल के दौरान ही विकसित हो रहा है, लेकिन जबर्दस्त असमानता और गरीबी के बीच। तुलनात्मक रूप से गरीबों के इस पर्यावरणवाद में परिवर्तन के सवाल के जवाब पाना असंभव है, जब तक कि सवाल ही न बदल दिया जाए।

अब जरा इस आंदोलन के जन्म एवं विकास पर गौर करें। इसकी शुरुआत हुई 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में, पर्यावरण पर स्टॉकहोम सम्मेलन में इंदिरा गाँधी के प्रसिद्ध वाक्य से कि 'गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता है।' लेकिन इसी दौरान हिमालय में चिपको आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने हमें बता दिया कि दरअसल गरीब अपने पर्यावरण की चिंता भी करते हैं। दूसरे शब्दों में गरीबी नहीं, दोहक और शोषक अर्थव्यवस्थाएँ सबसे बड़ी प्रदूषणकर्ता हैं।

अस्सी के दशक में संस्थागत ढाँचा खड़ा कर पर्यावरण विभाग का गठन किया गया। तब मुख्य उद्देश्य था वनों की कटाई रोकना। 1980 का वन संरक्षण अधिनियम हरियाली को बचाने एक निष्ठुर उपाय था। इसके तहत केंद्रीय मंत्रालय की स्वीकृति के बिना वन भूमि का एक हैक्टेयर भी गैर-वन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। आंदोलन के इस दौर में देश ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिकारों का केंद्रीकरण कर दिया।

नब्बे के दशक में इन कार्यक्रमों व संस्थानों का काम आगे बढ़ा। इस दशक में मुख्य लक्ष्य था परिवर्तन को लागू करना व उसका प्रबंधन करना लेकिन इसे लागू करने के लिए समय ही नहीं मिला। इस दशक में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तीव्र हुई और उदारीकरण का दौर चला, जिसमें जल एवं वायु प्रदूषण तथा विषैले अपशिष्ट संबंधी नई एवं महत्वपूर्ण समस्याएँ उभरकर सामने आईं। तीव्र आर्थिक परिवर्तन के चलते पर्यावरण का संकट बढ़ गया। नई, जटिल समस्याओं को नए, सुलझे हुए समाधानों की तलाश थी। जर्जर हो रहे औपचारिक संस्थानों की जगह नए ढाँचों और संगठनों ने ली।

एक तरफ थी सक्रिय (कभी-कभी अति-सक्रिय होने का आरोप झेलती) न्यायपालिका, जो पर्यावरणीय सरोकारों का प्रबंधन अपने हाथों में लेने लगी। पर्यावरण सुधार हेतु हजारों नागरिकों द्वारा दायर की जाने वाली याचिकाओं ने उसका उत्साहवर्द्धन किया। अदालतों को जल्द ही यह अहसास हो गया कि वे आदेश पारित तो कर सकती हैं लेकिन उन पर अमल नहीं कर सकतीं। सो उन्होंने अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया, जो अदालती फैसलों के अमल पर निगरानी रखें। दूसरी तरफ मीडिया का समर्थन प्राप्त नागरिक समूह पर्यावरण के सक्रिय रखवाले एवं प्रबंधक बन गए। औपचारिक संस्थानों का काम भी इन्होंने अपने हाथों में ले लिया। विकास से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के आकलन में उद्योग व नौकरशाही की साँठगाँठ से होने वाले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए नागरिक समाज आगे आया। जन-सुनवाइयों की अवधारणा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया।

आज हमारे सामने दो मुख्य चुनौतियाँ खड़ी हैं। एक ओर तो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की सघनता बढ़ रही है, जिससे अधिक संघर्ष व अधिक पर्यावरण ह्रास हो रहा है। दूसरी ओर वे गरीब लोग और भी अधिक हाशिए पर चले गए हैं, जो पर्यावरण पर ही जीते हैं और जिनके लिए पर्यावरण ही आर्थिक परिवर्तन लाने का जरिया है। यूँ विश्व भर में पर्यावरणीय सरोकार जनांदोलनों की ही उपज रहे हैं। इन आंदोलनों की वजह से उपजे राजनीतिक दबाव के चलते ही पहले कानून बने और फिर इन्हें लागू करने के लिए संस्थान। हमारे यहाँ जनांदोलन से पहले कानून और संस्थान बन गए लेकिन ये कारगर नहीं हो पाए। अतः भारत में पर्यावरण आंदोलन का काम मुख्यतः दबाव निर्मित करना है ताकि सरकार स्वयं द्वारा बनाए गए कानूनों व नियमों को ठीक से लागू कराए।

पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।
(लेखिका विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की निदेशक हैं।)

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