'मुंबई के कफ परेड इलाके में झुग्गी-बस्तियों के विध्वंस के खिलाफ मेरी भूख हड़ताल का वह चौथा दिन था। मेरा रक्तचाप गिरने लगा था और माँ का डर के मारे बुरा हाल था। अब्बा, जो उस समय पटना में थे, ने मुझे यह कहने के लिए टेलीग्राम भेजा था कि "बेस्ट ऑफ लक, कॉमरेड।" अब्बा ऐसे ही थे। वे कभी उपदेश नहीं देते थे, जैसा कि अक्सर घर के बड़े अपने से छोटों को उपदेश देने का अधिकार अपने पास सुरक्षित समझते हैं।
बल्कि वे अपनी हृदयंगम बातों और मूल्यों को बिना शब्दों के समझा देते थे। उनका ऐसा मानना था कि यदि मिट्टी उपजाऊ है तो अच्छे संस्कार देर-सबेर जड़ पकड़ ही लेते हैं। मैं समझती हूँ अब्बा ने मुझे नियंत्रित और निर्देशित करने की कोशिश की होती तो मैं वह नहीं होती जो आज मैं हूँ।
उन्होंने कभी असहजता महसूस नहीं की, जब मैंने जान-बूझकर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से खुद को अलग रखा था। मैं कभी समाचार-पत्र भी नहीं पढ़ती थी लेकिन राजनीति की बातें बचपन से सुनती आ रही थी। मुझे अच्छी तरह याद है उन मजदूर-किसान रैलियों में जाना, जिनके संबोधन का सारा का सारा भार मेरे पिता के कंधों पर होता था।
वहाँ पर बहुत नारेबाजी होती थी और सभा में चारों ओर लाल रंग ही दिखाई देता था। हमारे दिन लाल झंडों से भरे हुए हॉल में गुजरते थे, जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ हम भी होते थे। मेरे पिता और उनके मित्रों के बीच वहाँ पर विभिन्ना मुद्दों पर चर्चा तथा कई बार गर्मागर्म बहसें भी होती थीं।
शायद यही सब देखकर मैंने युवावस्था में राजनीति से खुद को दूर रखने का फैसला किया था क्योंकि मुझे लगता था कि यह मेरे लिए बहुत अधिक होगा। लेकिन मेरे पिता को दृढ़ विश्वास था कि वह समय जरूर आएगा जब मैं इस ओर आऊँगी।
एक शाम मुझे साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए दिल्ली से मेरठ तक पद यात्रा पर जाना था। मैं अपने परिवार से बिदा लेने के लिए गई। मैं बहुत नर्वस थी तथा बहुत अनिश्चय की स्थिति महसूस कर रही थी। मम्मी, बाबा (मेरा भाई) उसकी पत्नी तन्वी और जावेद सभी मेरे आस-पास घूम रहे थे पर एक भी शब्द नहीं कह रहे थे।
मैं अब्बा के कमरे की तरफ गई और अब्बा को एक बड़े सहारे के रूप में अपने पीछे खड़ा पाया। उन्होंने मुझे अपने सामने खींचा और कहा कि अरे, मेरी बहादुर बेटी डर रही है? जाओ तुम्हें कुछ नहीं होगा।' उनकी आँखों में कोई डर नहीं था। यह बात मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह साबित हुई, जिससे मेरी धमनियों में रुका हुआ रक्त फिर चलने लगा।
सामान्यतः उनकी रचनाओं की पहली श्रोता मैं ही हुआ करता थी। वे मुझसे उनके बारे में मेरी प्रतिक्रिया पूछा करते थे। मैंने उनके शब्दों को जिया है। सच कहूँ तो मैं एक पिता के रूप में हमेशा उनका सम्मान करती रही लेकिन कवि के रूप में उनकी रचनाओं से मैं अभिभूत रही।
मैं यह दावा नहीं कर सकती कि उनके द्वारा लिखी गई सभी रचनाओं को मैं पूरी तरह समझ सकी लेकिन उनकी कविताओं में उनकी दिल को छू लेने वाली अद्भुत कल्पनाशक्ति और विस्तृत व खुली हुई सोच के दर्शन होते हैं। मेरा कोई भी कार्य हो, वह चाहे झुग्गीवासियों के हक की लड़ाई हो, महिलाओं के हक की लड़ाई हो या साम्प्रदायिकता के विरोध में मेरा कोई कार्य हो, आज भी अब्बा की नज्मे मेरा मार्गदर्शन करती हैं।'